Friday 31 May 2013

कांकड़ !

कांकड़ यानी गांव की सीमा. गांव की बाहरी सीमा कांकड़ कहलाती है. कांकड़ पर गांव की सीमा समाप्‍त हो जाती है और ठीक वहीं से दूसरे गांव की रोही शुरू हो जाती है. हर गांव की एक सीमा होती है जहां से उसके क्षेत्र की शुरुआत मानी जाती है इसी सीमा या लाइन को कांकड़ कहते हैं. थार के गांवों में इस सीमा का बहुत महत्‍व रहा है. अनेक रिवाज कांकड़ से जुड़े हैं. तो यही है कांकड़ और ग्रामीण भारत विशेषकर थार में उसका महत्‍व. हर गांव की कांकड़ अपने में अनेक विशेषताएं समेटे होती है. यही कारण है कि प्रत्‍येक गांव की कोई विशेषता होती है, एक पहचान होती है. उनके रीति रिवाज, संस्‍कृति, गुवाड़ें सब कुछ न कुछ अलग होती हैं. विविधिता होती है. गांव की मजबूत भींते और उनके गिरते लेवड़े अनेक कहानियां कहते हैं. इतिहास के सबसे बड़े मूक साक्षी हैं हमारे गांव.गोदरास को जानना है तो शुरुआत कांकड़ या शुरुआत से ही करनी होगी.

Wednesday 15 May 2013

अक्षय तृतीया




अक्षय तृतीया वैशाख शुक्ल तृतीया को कहा जाता हैं। वैदिक कलैण्डर के चार सर्वाधिक शुभ दिनों में से यह एक मानी गई है। 'अक्षय' से तात्पर्य है 'जिसका कभी क्षय न हो' अर्थात जो कभी नष्ट नहीं होता। भारत के उत्तर प्रदेश ज़िले के वृन्दावन में ठाकुर जी के चरण दर्शन इसी दिन होते हैं। अक्षय तृतीया को सामान्यतया 'अखतीज' या 'अक्खा तीज' के नाम से भी पुकारा जाता है। वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि अक्षय तृतीया के नाम से लोक विख्यात है। अक्षय तृतीया को भगवान विष्णु ने परशुराम अवतार लिया था। अत: इस दिन व्रत करने और उत्सव मनाने की प्रथा है।ग्रीष्म ऋतु का पदार्पण, हरियाली फ़सल को पका कर, लोगों में खुशी का संचार कर, विभिन्न व्रत, पर्वों के साथ होता है। भारत भूमि व्रत व पर्वों के मोहक हार से सजी हुई मानव मूल्यों व धर्म रक्षा की गौरव गाथा गाती है। धर्म व मानव मूल्यों की रक्षा हेतु श्रीहरि विष्णु देशकाल के अनुसार अनेक रूपों को धारण करते हैं, जिसमें भगवान परशुराम, नर नारायण के तीन पवित्र व शुभ अवतार अक्षय तृतीया को उदय हुए थे। मानव कल्याण की इच्छा से धर्म शास्त्रों में पुण्य शुभ पर्व की कथाओं की आवृत्ति हुई है, जिसमें अक्षय तृतीया का व्रत भी प्रमुख है, जो कि अपने आप में स्वयंसिद्ध है।
धार्मिक महत्त्व

पुराणों में उल्लेख मिलता है कि इसी दिन से त्रेता युग का आरंभ हुआ था। नर नारायण ने भी इसी दिन अवतार लिया था। भगवान परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ। प्रसिद्ध तीर्थस्थल बद्रीनारायण के कपाट भी इसी तिथि से ही पुनः खुलते हैं। वृन्दावन स्थित श्री बांके बिहारी जी के मन्दिर में भी केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं। अक्षय तृतीया को व्रत रखने और अधिकाधिक दान देने का बड़ा ही महात्म्य है। अक्षय तृतीया में सतयुग, किंतु कल्पभेद से त्रेतायुग की शुरुआत होने से इसे युगादि तिथि भी कहा जाता है। वैशाख मास में भगवान भास्कर की तेज धूप तथा लहलहाती गर्मी से प्रत्येक जीवधारी क्षुधा पिपासा से व्याकुल हो उठता है। इसलिए इस तिथि में शीतल जल, कलश, चावल, चना, दूध, दही आदि खाद्य व पेय पदार्थों सहित वस्त्राभूषणों का दान अक्षय व अमिट पुण्यकारी माना गया है। सुख शांति की कामना से व सौभाग्य तथा समृद्धि हेतु इस दिन शिव-पार्वती और नर नारायण की पूजा का विधान है। इस दिन श्रद्धा विश्वास के साथ व्रत रखकर जो प्राणी गंगा-जमुनादि तीर्थों में स्नान कर अपनी शक्तिनुसार देव स्थल व घर में ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ, होम, देव-पितृ तर्पण, जप, दानादि शुभ कर्म करते हैं, उन्हें उन्नत व अक्षय फल की प्राप्ति होती है।



बांके बिहारी जी मन्दिर, वृन्दावन
सुख व समृद्धि वर्धक

तृतीया तिथि माँ गौरी की तिथि है, जो बल-बुद्धि वर्धक मानी गई हैं। अत: सुखद गृहस्थ की कामना से जो भी विवाहित स्त्री-पुरुष इस दिन माँ गौरी व सम्पूर्ण शिव परिवार की पूजा करते हैं, उनके सौभाग्य में वृद्धि होती है। यदि अविवाहित स्त्री-पुरुष इस दिन श्रद्धा विश्वास से माँ गौरी सहित अनंत प्रभु शिव को परिवार सहित शास्त्रीय विधि से पूजते हैं तो उन्हें सफल व सुखद वैवाहिक सूत्र में अविलम्ब व निर्बाध रूप से जुड़ने का पवित्र अवसर अति शीघ्र मिलता है। वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन अक्षय तृतीया में पूजा, जप-तप, दान स्नानादि शुभ कार्यों का विशेष महत्व तथा फल रहता है। इस तिथि का जहाँ धार्मिक महत्व है, वहीं यह तिथि व्यापारिक रौनक बढ़ाने वाली भी मानी गई है। इस दिन स्वर्णादि आभूषणों की ख़रीद-फरोख्त को बहुत ही शुभ माना जाता है। जिससे आभूषण निर्माता व विक्रेता अपने प्रतिष्ठानों को बड़े ही सुन्दर ढंग से सजाते हैं और कई तरह से ग्राहकों को लुभाने व आकर्षित करने का प्रयास करते हैं। कई बड़े प्रतिष्ठानों में तो विक्रय लक्ष्य भी तय किए जाते हैं। इसमें इच्छित आभूषणों की ख़रीद व शुभ कार्य सम्पन्न करने से मानव जीवन सुख व धान्य से परिपूर्ण हो जाता है। श्रद्धालु भक्त प्रभु की अर्चना वंदना करते हुए विविध नैवेद्य अर्पित करते हैं। अक्षय तृतीया सुख-शांति व सौभाग्य में निरंतर वृद्धि करने वाली है।
सौभाग्य का प्रतीक

'अक्षय तृतीया' के दिन ख़रीदे गये वेशक़ीमती आभूषण एवं सामान शाश्वत समृद्धि के प्रतीक हैं। इस दिन ख़रीदा व धारण किया गया सोना अखण्ड सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। इस दिन शुरू किये गए किसी भी नये काम या किसी भी काम में लगायी गई पूँजी में सदा सफलता मिलती है और वह फलता-फूलता है। यह माना जाता है कि इस दिन ख़रीदा गया सोना कभी समाप्त नहीं होता, क्योंकि भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी स्वयं उसकी रक्षा करते हैं।

* इस दिन समुद्र या गंगा स्नान करना चाहिए।
* प्रातः पंखा, चावल, नमक, घी, शक्कर, साग, इमली, फल तथा वस्त्र का दान करके ब्राह्मणों को दक्षिणा भी देनी चाहिए।
* ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।
* इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए।
* आज के दिन नवीन वस्त्र, शस्त्र, आभूषणादि बनवाना या धारण करना चाहिए।
* नवीन स्थान, संस्था, समाज आदि की स्थापना या उद्घाटन भी आज ही करना चाहिए।

व्रत कथा : प्राचीनकाल में सदाचारी तथा देव-ब्राह्मणों में श्रद्धा रखने वाला धर्मदास नामक एक वैश्य था। उसका परिवार बहुत बड़ा था। इसलिए वह सदैव व्याकुल रहता था। उसने किसी से इस व्रत के माहात्म्य को सुना। कालांतर में जब यह पर्व आया तो उसने गंगा स्नान किया।

विधिपूर्वक देवी-देवताओं की पूजा की। गोले के लड्डू, पंखा, जल से भरे घड़े, जौ, गेहूँ, नमक, सत्तू, दही, चावल, गुड़, सोना तथा वस्त्र आदि दिव्य वस्तुएँ ब्राह्मणों को दान कीं। स्त्री के बार-बार मना करने, कुटुम्बजनों से चिंतित रहने तथा बुढ़ापे के कारण अनेक रोगों से पीड़ित होने पर भी वह अपने धर्म-कर्म और दान-पुण्य से विमुख न हुआ। यही वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती का राजा बना।

अक्षय तृतीया के दान के प्रभाव से ही वह बहुत धनी तथा प्रतापी बना। वैभव संपन्न होने पर भी उसकी बुद्धि कभी धर्म से विचलित नहीं हुई।

अक्षय तृतीया अभिजीत मुहुर्त |
धर्म शास्त्रों में इस पुण्य शुभ पर्व की कथाओं के बारे में बहुत कुछ विस्तार पूर्वक कहा गया है. इनके अनुसार यह दिन सौभाग्य और संपन्नता का सूचक होता है. दशहरा, धनतेरस, देवउठान एकादशी की तरह  अक्षय तृतीया  को अभिजीत, अबूझ मुहुर्त या सर्वसिद्धि मुहूर्त भी कहा जाता है. क्योंकि इस दिन किसी भी शुभ कार्य करने हेतु पंचांग देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती. अर्थात इस दिन किसी भी शुभ काम को करने के लिए आपको मुहूर्त निकलवाने की आवश्यकता  नहीं होती. अक्षय अर्थात कभी कम ना होना वाला इसलिए मान्यता अनुसार इस दिन किए गए कार्यों में शुभता प्राप्त होती है. भविष्य में उसके शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं.

पूरे भारत वर्ष में अक्षय तृतीया की खासी धूम रहती है. हए कोई इस शुभ मुहुर्त के इंतजार में रहता है ताकी इस समय किया गया कार्य उसके लिए अच्छे फल लेकर आए. मान्यता है कि इस दिन होने वाले काम का कभी क्षय नहीं होता अर्थात इस दिन किया जाने वाला कार्य कभी अशुभ फल देने वाला नहीं होता. इसलिए किसी भी नए कार्य की शुरुआत से लेकर महत्वपूर्ण चीजों की खरीदारी व विवाह जैसे कार्य भी इस दिन बेहिचक किए जाते हैं.

नया वाहन लेना या गृह प्रेवेश करना, आभूषण खरीदना इत्यादि जैसे कार्यों के लिए तो लोग इस तिथि का विशेष उपयोग करते हैं. मान्यता है कि यह दिन सभी का जीवन में अच्छे भाग्य और सफलता को लाता है. इसलिए लोग जमीन जायदाद संबंधी कार्य, शेयर मार्केट में निवेश रीयल एस्टेट के सौदे या कोई नया बिजनेस शुरू करने जैसे काम भी लोग इसी दिन करने की चाह रखते हैं.

सुखदेव थापर


सुखदेव (जन्म- 15 मई, 1907, पंजाब; शहादत- 23 मार्च, 1931, सेंट्रल जेल, लाहौर) को भारत के उन प्रसिद्ध क्रांतिकारियों और शहीदों में गिना जाता है, जिन्होंने अल्पायु में ही देश के लिए शहादत दी। सुखदेव का पूरा नाम 'सुखदेव थापर' था। देश के और दो अन्य क्रांतिकारियों- भगत सिंह और राजगुरु के साथ उनका नाम जोड़ा जाता है। ये तीनों ही देशभक्त क्रांतिकारी आपस में अच्छे मित्र और देश की आजादी के लिए अपना सर्वत्र न्यौछावर कर देने वालों में से थे। 23 मार्च, 1931 को भारत के इन तीनों वीर नौजवानों को एक साथ फ़ाँसी दी गई।

जन्म तथा परिवार

सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को गोपरा, लुधियाना, पंजाब में हुआ था। उनके पिता का नाम रामलाल थापर था, जो अपने व्यवसाय के कारण लायलपुर (वर्तमान फैसलाबाद, पाकिस्तान) में रहते थे। इनकी माता रल्ला देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। दुर्भाग्य से जब सुखदेव तीन वर्ष के थे, तभी इनके पिताजी का देहांत हो गया। इनका लालन-पालन इनके ताऊ लाला अचिन्त राम ने किया। वे आर्य समाज से प्रभावित थे तथा समाज सेवा व देशभक्तिपूर्ण कार्यों में अग्रसर रहते थे। इसका प्रभाव बालक सुखदेव पर भी पड़ा। जब बच्चे गली-मोहल्ले में शाम को खेलते तो सुखदेव अस्पृश्य कहे जाने वाले बच्चों को शिक्षा प्रदान करते थे।

भगत सिंह से मित्रता
सन 1919 में हुए जलियाँवाला बाग़ के भीषण नरसंहार के कारण देश में भय तथा उत्तेजना का वातावरण बन गया था। इस समय सुखदेव 12 वर्ष के थे। पंजाब के प्रमुख नगरों में मार्शल लॉ लगा दिया गया था। स्कूलों तथा कालेजों में तैनात ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय छात्रों को 'सैल्यूट' करना पड़ता था। लेकिन सुखदेव ने दृढ़तापूर्वक ऐसा करने से मना कर दिया, जिस कारण उन्हें मार भी खानी पड़ी। लायलपुर के सनातन धर्म हाईस्कूल से मैट्रिक पास कर सुखदेव ने लाहौर के नेशनल कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ पर सुखदेव की भगत सिंह से भेंट हुई। दोनों एक ही राह के पथिक थे, अत: शीघ्र ही दोनों का परिचय गहरी दोस्ती में बदल गया। दोनों ही अत्यधिक कुशाग्र और देश की तत्कालीन समस्याओं पर विचार करने वाले थे। इन दोनों के इतिहास के प्राध्यापक 'जयचन्द्र विद्यालंकार' थे, जो कि इतिहास को बड़ी देशभक्तिपूर्ण भावना से पढ़ाते थे। विद्यालय के प्रबंधक भाई परमानन्द भी जाने-माने क्रांतिकारी थे। वे भी समय-समय पर विद्यालयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करते थे। यह विद्यालय देश के प्रमुख विद्वानों के एकत्रित होने का केन्द्र था तथा उनके भी यहाँ भाषण होते रहते थे।

क्रांतिकारी जीवन

वर्ष 1926 में लाहौर में 'नौजवान भारत सभा' का गठन हुआ। इसके मुख्य योजक सुखदेव, भगत सिंह, यशपाल, भगवती चरण व जयचन्द्र विद्यालंकार थे। 'असहयोग आन्दोलन' की विफलता के पश्चात 'नौजवान भारत सभा' ने देश के नवयुवकों का ध्यान आकृष्ट किया। प्रारम्भ में इनके कार्यक्रम नौतिक, साहित्यिक तथा सामाजिक विचारों पर विचार गोष्ठियाँ करना, स्वदेशी वस्तुओं, देश की एकता, सादा जीवन, शारीरिक व्यायाम तथा भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता पर विचार आदि करना था। इसके प्रत्येक सदस्य को शपथ लेनी होती थी कि वह देश के हितों को सर्वोपरि स्थान देगा। परन्तु कुछ मतभेदों के कारण इसकी अधिक गतिविधि न हो सकी। अप्रैल, 1928 में इसका पुनर्गठन हुआ तथा इसका नाम 'नौजवान भारत सभा' ही रखा गया तथा इसका केन्द्र अमृतसर बनाया गया।

केंन्द्रीय समिति का निर्माण
सितम्बर, 1928 में ही दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला के खण्डहर में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई। इसमें एक केंन्द्रीय समिति का निर्माण हुआ। संगठन का नाम 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' रखा गया। सुखदेव को पंजाब के संगठन का उत्तरदायित्व दिया गया। सुखदेव के परम मित्र शिव वर्मा, जो प्यार में उन्हें 'विलेजर' कहते थे, के अनुसार भगत सिंह दल के राजनीतिक नेता थे और सुखदेव संगठनकर्ता, वे एक-एक ईंट रखकर इमारत खड़ी करने वाले थे। वे प्रत्येक सहयोगी की छोटी से छोटी आवश्यकता का भी पूरा ध्यान रखते थे। इस दल में अन्य प्रमुख व्यक्त थे-

चन्द्रशेखर आज़ाद
राजगुरु
बटुकेश्वर दत्त
कुशल रणनीतिकार

'साइमन कमीशन' के भारत आने पर हर ओर उसका तीव्र विरोध हुआ। पंजाब में इसका नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे। 30 अक्तूबर को लाहौर में एक विशाल जुलूस का नेतृत्व करते समय वहाँ के डिप्टी सुपरिटेन्डेन्ट स्कार्ट के कहने पर सांडर्स ने लाठीचार्ज किया, जिसमें लालाजी घायल हो गए। पंजाब में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी का देहांत हो गया। उनके शोक में स्थान-स्थान पर सभाओं का आयोजन किया गया। सुखदेव और भगत सिंह ने एक शोक सभा में बदला लेने का निश्चय किया। एक महीने बाद ही स्कार्ट को मारने की योजना थी, परन्तु गलती से उसकी जगह सांडर्स मारा गया। इस सारी योजना के सूत्रधार सुखदेव ही थे। वस्तुत: सांडर्स की हत्या चितरंजन दास की विधवा बसन्ती देवी के कथन का सीधा उत्तर था, जिसमें उन्होंने कहा था, "क्या देश में कोई युवक नहीं रहा?" सांडर्स की हत्या के अगले ही दिन अंग्रेज़ी में एक पत्रक बांटा गया, जिसका भाव था "लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले किया गया।"

गिरफ्तारी

8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश सरकार के बहरे कानों में आवाज़ पहुँचाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर धमाका किया। स्वाभाविक रूप से चारों ओर गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ। लाहौर में एक बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई, जिसके फलस्वरूप 15 अप्रैल, 1929 को सुखदेव, किशोरी लाल तथा अन्य क्रांतिकारी भी पकड़े गए। सुखदेव चेहरे-मोहरे से जितने सरल लगते थे, उतने ही विचारों से दृढ़ व अनुशासित थे। उनका गांधी जी की अहिंसक नीति पर जरा भी भरोसा नहीं था। उन्होंने अपने ताऊजी को कई पत्र जेल से लिखे। इसके साथ ही महात्मा गांधी को जेल से लिखा उनका पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो न केवल देश की तत्कालीन स्थिति का विवेचन करता है, बल्कि कांग्रेस की मानसिकता को भी दर्शाता है। उस समय गांधी जी अहिंसा की दुहाई देकर क्रांतिकारी गतिविधियों की निंदा करते थे। इस पर कटाक्ष करते हुए सुखदेव ने लिखा, "मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षों में कोई अधिक महत्व नहीं होता और न ही हो सकता है।"

सच्चे राष्ट्रवादी


सुखदेव, भगतसिंह, राजगुरु
सुखदेव ने तत्कालीन परिस्थितियों पर गांधी जी एक पत्र में लिखा, 'आपने अपने समझौते के बाद अपना आन्दोलन (सविनय अवज्ञा आन्दोलन) वापस ले लिया है और फलस्वरूप आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ? 1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं। बावजूद इस बात के कि वे अपनी सजा पूरी कर चुके हैं। मार्शल लॉ के तहत बन्दी बनाए गए अनेक लोग अब तक जीवित दफनाए गए से पड़े हैं। बब्बर अकालियों का भी यही हाल है। देवगढ़, काकोरी, महुआ बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद है।..... एक दर्जन से अधिक बन्दी सचमुच फांसी के फंदों के इन्तजार में हैं। इन सबके बारे में क्या हुआ?" सुखदेव ने यह भी लिखा, भावुकता के आधार पर ऐसी अपीलें करना, जिनसे उनमें पस्त-हिम्मती फैले, नितांत अविवेकपूर्ण और क्रांति विरोधी काम है। यह तो क्रांतिकारियों को कुचलने में सीधे सरकार की सहायता करना होगा।' सुखदेव ने यह पत्र अपने कारावास के काल में लिखा। गांधी जी ने इस पत्र को उनके बलिदान के एक मास बाद 23 अप्रैल, 1931 को 'यंग इंडिया' में छापा।

शहादत

ब्रिटिश सरकार ने सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु पर मुकदमे का नाटक रचा। 23 मार्च, 1931 को उन्हें 'लाहौर सेंट्रल जेल' में फांसी दे दी गई। देशव्यापी रोष के भय से जेल के नियमों को तोड़कर शाम को साढ़े सात बजे इन तीनों क्रांतिकारियों को फाँसी पर लटकाया गया। भगत सिंह और सुखदेव दोनों एक ही सन में पैदा हुए और एक साथ ही शहीद हो गए।

भैरोंसिंह शेखावत

                                                                   भैरोंसिंह शेखावत
                                                             (23 अक्टूबर, 1923-15 मई, 2010)


भैरोंसिंह शेखावत (; जन्म- 23 अक्टूबर, 1923, सीकर, ब्रिटिश भारत; मृत्यु- 15 मई, 2010, जयपुर, राजस्थान) भारत के ग्यारहवें उपराष्ट्रपति और राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री थे। वे राजस्थान के राजनीतिक क्षितिज पर काफ़ी लम्बे समय तक छाये रहे। राजस्थान की राजनीति में उनका जबर्दस्त प्रभाव था। उनके कार्यकर्ताओं ने उन पर एक जोरदार नारा भी दिया, जो इस प्रकार था- "राजस्थान का एक ही सिंह, भेंरोसिंह....., भेंरोसिंह.....। यह नारा बहुत लम्बे समय तक गूँजता रहा था। राजस्थान में जब वर्ष 1952 में विधानसभा की स्थापना हुई थी, तब भैरोंसिंह शेखावत ने अपना भाग्य आजमाया और विधायक बने। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और सफलताएँ अर्जित करते हुए विपक्ष के नेता, फिर मुख्यमंत्री और उपराष्ट्रपति के पद तक पहुँच गए। 'भारतीय जनता पार्टी' के सम्माननीय नेताओं में से वे एक थे।
जन्म तथा परिवार

भैरोंसिंह शेखावत का जन्म 23 अक्टूबर, 1923 को धनतेरस के दिन ब्रिटिश कालीन सीकर (राजस्थान) में हुआ था। ये एक मध्यम वर्गीय राजपूत[1] परिवार से सम्बन्ध रखते थे। इनके पिता का नाम देवीसिंह और माता बन्ने कँवर थीं। शेखावत जी के पिता एक स्कूल में अध्यापक पद पर कार्यरत थे। भैरोंसिंह शेखावत के तीन भाई थे, जिनके नाम थे- विशन सिंह, गोवर्धन सिंह और लक्ष्मण सिंह
शिक्षा तथा विवाह
भैरोंसिंह शेखावत ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में ही प्राप्त की। उन्होंने हाईस्कूल की शिक्षा गाँव से 30 किलोमीटर दूर स्थित जोबनेर से प्राप्त की। यहाँ पढ़ने आने के लिए भैरोंसिंह शेखावत को प्रतिदिन पैदल जाना पड़ता था। हाईस्कूल करने के पश्चात उन्होंने जयपुर के 'महाराजा कॉलेज' में दाखिला ले लिया। उन्हें प्रवेश लिए अधिक समय नहीं हुआ था कि पिता का देहांत हो गया। अब शेखावत जी पर परिवार के आठ प्राणियों के भरण-पोषण का भार आ पड़ा। इस कारण उन्हें हल हाथ में उठाना पड़ा। बाद में पुलिस की नौकरी भी की, लेकिन उसमें मन नहीं रमा और त्यागपत्र देकर वापस खेती करने लगे। वर्ष 1941 में भैरोंसिंह शेखावत का विवाह सूरज कँवर से कर दिया गया। इनकी पुत्री का नाम रतन कँवर है।

राजनीति में प्रवेश

इस समय राजस्थान के गठन की प्रक्रिया चल रही थी। भैरोंसिंह शेखावत जनसंघ के संस्थापक काल से ही जुड़ गये और 'जनता पार्टी' तथा 'भाजपा' की स्थापना में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। वर्ष 1952 में वे दस रुपये उधार लेकर दाता रामगढ़ से चुनाव के लिए खड़े हुए। इस समय उनका चुनाव चिह्न 'दीपक' था। इस चुनाव में उन्हें सफलता मिली और वे विजयी हुए। इस सफलता के बाद उनका राजनीतिक सफर लगातार चलता रहा। वे दस वार विधायक, 1974 से 1977 तक राज्य सभा के सदस्य रहे।

राजनीतिक सफर

अपने लम्बे राजनीतिक सफर में भैरोंसिंह शेखावत तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री, तीन बार नेता प्रतिपक्ष और भारत के ग्यारहवें उपराष्ट्रपति भी रहे।

मुख्यमंत्री
22 जून, 1977 से 15 फ़रवरी, 1980 तक
4 मार्च, 1990 से 15 दिसम्बर, 1992 तक
15 दिसम्बर, 1992 से 31 दिसम्बर, 1998 तक
नेता प्रतिपक्ष
15 जुलाई, 1980 से 10 मार्च, 1985 तक
28 मार्च, 1985 से 30 दिसम्बर, 1989 तक
8 जनवरी, 1999 से 18 अगस्त, 2002 तक
उपराष्ट्रपति
भैरोंसिंह शेखावत जी 12 अगस्त, 2002 को भारत के ग्यारहवें उपराष्ट्रपति बने। उनका कार्यकाल 19 अगस्त, 2002 से 21 जुलाई, 2007 तक रहा था। वर्ष 2007 में वे राष्ट्रपति चुनाव में पराजित हो गए थे।

लोकप्रियता

शेखावत जी एक जन नेता थे। जनता के बीच उन्हें बहुत लोकप्रियता प्राप्त थी। उन्होंने राजस्थान के दस अलग-अलग स्थानों से विधान सभा चुनाव लड़े और उनमें से आठ में विजयश्री का वरण किया। वे एक से ग्यारह तक की राजस्थान विधान सभाओं में से मात्र पाँचवीं में नही थे। अर्थात दस विधान सभा चुनवों में वे जीत कर गये थे। आपात काल के समय भैरोंसिंह शेखावत ने उन्नीस माह तक जेल की सज़ा भी भोगी। विधायक दल के नेता तो वे कई बार रहे। 'भारतीय जनता पार्टी' में अनेकों पदों पर रहते हुए वे प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और किसान मोर्च के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने थे।

ग़रीबों के सहायक

आजीवन राष्ट्रहित में काम करने वाले जननेता शेखावत जी ग़रीबों के सच्चे सहायक थे। उन्होंने एक बार कहा था कि- "मैं गरीबों और वंचित तबके के लिए काम करता रहूँगा ताकि वे अपने मौलिक अधिकारों का गरिमापूर्ण तरीके से इस्तेमाल कर सकें।" देश के अत्यंत ग़रीब लोगों को भोजन मुहैया कराने के लिए चलाई जाने वाली "अंत्योदय अन्न योजना" का श्रेय उन्हीं को जाता है। उनके इस कदम के लिए तत्कालीन विश्व बैंक के अध्यक्ष रॉबर्ट मैक्कनमारा ने उनकी सराहना करते हुए उन्हें भारत का रॉकफ़ेलर कहा था। अपने जीवन काल की एक अन्य चर्चित घटना "रूप कंवर सती कांड" के दौरान अपनी लोकप्रियता और राजनीतिक कैरियर की परवाह न करते हुए भैरोंसिह शेखावत ने 'सती प्रथा' के विरोध में आवाज़ बुलंद की थी।

योजनाएँ
शेखावत जी का राजनीतिक कार्यकाल गरीबों की बेहतरी और विकास को समर्पित रहा था। ग़रीबों की भलाई के लिए उन्होंने कई योजनाएँ क्रियांवित की थीं, जैसे-

'काम के बदले अनाज योजना'
'अंत्योदय योजना'
'भामाशाह योजना'
'प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम'
अपनी योजनाओं के माध्यम से शेखावत जी ने ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने का जो सपना देखा था, वह आज काफ़ी हद तक साकार हो रहा है। राजनीति के इस माहिर खिलाड़ी ने सरकार में रहते हुए ऐसे ना जाने कितने काम किये, जिसका उदाहरण आज भी दिया जाता है। उनके द्वारा शुरू किये गये 'काम के बदले अनाज' योजना की मिसाल दी जाती है। बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या के नियंत्रण को लेकर भी उन्होंने अभिनव प्रयोग करते हुए अधिक संतानें होने पर पंचायतों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाया था।

निधन

राजस्थान की राजनीति में जोरदार प्रभाव रखने वाले भैरोंसिंह शेखावत का निधन 15 मई, 2010, जयपुर में हुआ। उन्हें बेचैनी और साँस लेने में तकलीफ की वजह से जयपुर के 'सवाई मानसिंह अस्पताल' में भर्ती करवाया गया था। यहाँ वे जीवन रक्षक प्रणाली पर रखे गए थे। शनिवार के दिन सुबह 11 बजकर, 10 मिनट पर डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था। उनका पार्थिव शरीर सबसे पहले भाजपा की प्रदेश इकाई के मुख्यालय में लाया गया था। पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन के लिए स़डकों पर हज़ारों लोग इकट्ठा थे। जयपुर की स़डकों पर "भैरोंसिंह अमर रहे" और "राजस्थान का एक ही सिंह, भैरोंसिंह.. भैरोंसिंह" की गूँज सुनाई दे रही थी।

आजीवन 'भाजपा' को समर्पित भैरोंसिंह शेखावत दलगत राजनीति से सदैव दूर रहे। ना केवल मुख्यमंत्री के रूप में बल्कि उपराष्ट्रपति पद पर रहते हुए भी उन्होंने सभी पार्टियों के लोगों से चाहे वे काँग्रेस के हों या साम्यवादी दल के, सभी के साथ समान व्यवहार किया। उनके जीवन का एक और तथ्य उल्लेखनीय है कि जब उपराष्ट्रपति का चुनाव लड़ा तो पहले 'भाजपा' की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। शेखावत जी ने पाँच वर्ष के कार्यकाल में अपने गरिमापूर्ण व्यवहार के कारण राज्य सभा में सभी पार्टियों से जो संबंध बनाये रखा, वह अपने आप में अनुकरणीय है।

मेरा गांव मेरा घर



गांव की बसावट
लेकिन शराब का प्रचलन गांव की सरहद में घुस आया है।  यह गांव तीन चौक का गांव कहा जाता है।
गांव की बसावट बहुत अच्छी है। गांव के खुल्लेपन को दर्शाती है। एवं किसी भी नव आगन्तुक को आकर्षित करती है।
यह एक समृद्ध गांव कहा जाता है। यहां शिक्षा अच्छी है। बालिकाओं की शिक्षा पर भी बराबर ध्यान दिया जाता है। आजिविका के हिसाब से प्राय हर घर में खेती के अलावा नौकरी व्यवसाय से आमद है।
युवा

रणबाकुरे

राजनिति

सेवा समिति
 गांव में होने वाले पारिवारिक एंव सामाजिक समारोह आदि के लिये बर्तनों एवं फर्नीचर आदि की सुविधा के लिये एक ग्राम सेवा समिति का संचालन किया जा रहा है। जिसके द्वारा होने वाले किसी भी आयोजन के लिये के लिये सामान निःशुल्क उपलब्ध करवाया जाता है। समिति के नियमित संचालन एवं आवश्यकतानुसार नया सामान जुटाने के लिये ब्याह - शादी में दिये जाने वाले ‘थामा’ की राशि गांव वालों द्वारा सेवा समिति में जमा करा दी जाती है। प्राप्त राशि का खर्च गांव वालों द्वारा आपसी सहमति से किया जाता है। एवं बकायदा लेखा जोखा भी रखा जाता है।
वार त्यौहार
 गांव में मकर संक्रंति,तीज,गोगानवमी,दीपावली,व होली के अलावा श्रद्धेह बाबा नथूराम की स्मृति में चोथ को खीर-चुरमा हर घर में बनाया जाता है। होलिका दहन गांव में एक ही जगह होती है। होलिका दहन के बाद धूलण्डी के दिन सुबह सुबह सभी गांव निवासी एक दुसरे के घर जाकर रामा श्यामा करते है। युवा लोग बुजुर्गो का आर्शीवाद लेते है। यह दृश्य आपसी सौहार्द की एक जिती जागती मिशाल है।

शादीयों के रिवाज





 आपको बता दूं कि मैं पिछले काफी दिनों से शादीयों में व्यस्त था इसलिए कुछ नया लिख नहीं पाया और और पढ भी नहीं पाया शादीयों में इसलिए कि अपना धंधा ही ऐसा हैं भाई पेट पुजा के लिए जाना पड़ता है।

चाक पूजन 

महिलाए इक्ट्ठा होकर खाली नये मटके लेकर कुम्हार (एक जाती जो मटके बनाने का कार्य करती है। ) के घर पर जाती हैं और वहा पर रखे चाक (जो मटके बनाने के काम आता है।) उसका पूजन मूंग, तेल,रोली, मोली और चावल, गुड चढ़ाकर उसका पूजन करती है।और फिर वहां एक घेरा बनाकर क्षेत्रिय गीतों पर नृत्य करती हैं हालाकि आजकल आधुनीकरण की होड में नई झलक देखने को मिल जाती है कि डी.जे के गानों पर नृत्य होने लगा है। इस रिवाज के बारे में पुछे जाने पर बुजुर्ग लोग सिर्फ यही बताते हैं कि "ये रिवाज पहले से ही चला आ रहा है। इसलिए हम भी यह निभाते है।"

(बर्तन) थाली खिसकाना और इक्ट्ठा करना
अर्थात गृह प्रवेश रश्म 

इसमें जब दुल्हा दुल्हन को लेकर घर में प्रवेश करता हैं तो लडत्रके की मां द्वारा पर अन्दर की तरफ 7 थालीयां रखती है। और दुल्हा उन थालियों को अपनी कटार से इधर उधर खिसकाता रहता है।  पिछे से दुल्हन उन थालियों को अक्ट्ठा करती रहती है। वो भी बिना टनटनाहट की आवाज के ऐसा माना जाता हैं कि अगर थाली इक्टठा करने में कोई आवाज हुई तो सास बहु की लडाई हो सकती है।  इस रश्म को निभाने से लड़ाई कितनी हद तक रूकती हैं ये तो आप सब भली भांति जानते ही है। ज्यादा बताने से क्या फायदा पुछे जाने पर इसके दो तीन उत्तर आये वो हैं कि  इससे अगर घर का मर्द यानी दुल्हा अगर घर की वस्तुए बिखेरता हैं तो औरत यानि दुल्हन को ऐसा होना चाहिए कि वो उसे समेट ले-
यह कि इससे दुल्हन के आज्ञाकारी होने का पता चलता है। 


सोट सोटकी
यह रिवाज बहुत ही रोचक और आश्चर्यजनक रिवाज है। कुछ समय पहले यानि गृहप्रवेश में तो झगड़ा न होने की बात की जाती हैं और उसके कुछ समय के बाद ही यह रश्म अदा की जाती है। इसमें सबसे पहले दुल्हा आपसे में नीम या जाल की सोटकी से एक दुसरे को मारते हैं और फिर दुल्हे के सांग दुल्हे की भाभीयां इसी क्रम में खेलती हैं और दुल्हन के साथ उसके देवर खेलते है। और कही कही तो दुल्हन के ननदोई यानी कि दुल्हे के जीजा जी भी दुल्हन के सांग खेलते है। कही कही तो देखा जाता हैं कि यह खेल भंयकर हो ताजा है। और एक गुस्से का रूप लेकर शरीर को चोट पहुचाने लायक बन जाता है। मजाक मजाक में ये लोग एक दुसरे को चोट पहुचा देते है। और आक्रामक रूप से खेलने लगते है।  

जुआ खेलना 
यह रिवाज भी विचित्र है। इसमें दुल्हा दुल्हन आपस में अपने कांगन डोरे खोलते हैं और दुल्हे की भाभी उसमें दुल्हन की मुंदड़ी (अंगूठी) मिलाकर उन दोनों को एक कोरे नये कुण्ड नुमा मिटटी के पात्र में दुध और पानी डालकर सात बार यह खेल लिखवाती है। इसमें यह देखा जाता है। हैं उस सफेद पानी में सेडाला गया डोरा और वो मुंदड़ी (अंगूठी) पहले कौन निकाल कर लाता हैं दुल्हा या दुल्हन  जो ज्यादा बार लाता हैं वह जितता है। और अंत में दुल्हा दुल्हन की मुटठी को खोलकर उसमें वो अंगूठी पहना देता है। यह भी विवाह का अटपटा लगने वाला रिवाज लगता है। 


Tuesday 14 May 2013

सुहागन की पहचान

माथे पर चमकती गोल बिंदी, कलाइयों में खनकती लाल कांच की चूडियाँ हों या मांग में सजा सिन्दूर हो या गले में पहना गया मंगलसूत्र, पांव में इठलाते बिछुए हों या खनकती पायल, जब इन सभी का ध्यान आता है, तो आंखों के आगे एक सुहगिन स्त्री की छवि उभर आती है। क्या आप जानती हैं कि सुहाग के इन चि±चों की आनी एक अलग ही जबां है। सिन्दूर की लाली 
शादी के बाद मांग भरना लगभग सभी प्रांतों में जरूरी माना जाता है। पंजाब, हरियाण, बिहार, असम, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, उत्तर प्रदेश महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में शादी के बाद मांग भ्रना बहुत अहमियत रखता है। उत्तरी व पूर्वी भारत में चटक लाल रंग का सिन्दूर मांग में भरा जाता है और सिन्दूर के साथ सामंजस्य बैठाने के लिए शक्ति की उपासना की जाती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार में सिन्दूर का रंग चटक केसरिया होता है, इसे कच्चा सिन्दूर कहते हैं। 
मांग टीका या बोरला 
मांग सजाने के लिए जहां सिन्दूर का प्रयोग किया जाता है, वहीं राजस्थानी महिलाओं में बोरला या मांग टीकर पहनना भी सुहाग की निशानी माना जाता है। चांदी या सोने का बना मांग टीका सूरज की हानिकारक किरणों से त्वचा का बचाव करता है और अत्यधिक गरमी में अल्ट्रावॉयलेट किरणों को जज्ब कर लेता है। यह एक प्रकार से प्रेशर पॉइंट पर दबाव भी बनाए रखता है, जिससे मस्तिष्क में शांति बनी रहती है। बिंदी माथे पर भौंहों के बीचोंबीच लगी बिंदी तीसरे नेत्र का काम करती है। ऎसा माना जाता है कि एक बार इसका अनुभव होने पर यह तीसरा नेत्र आध्यात्मिकता की ओर जाने को प्रेरित करता है। 
मंगलसूत्र की सार्थकता
क्या आप जानती हैं कि विवाह सम्बन्धित कई धार्मिक कृत्य उर्वरता से सम्बन्धित हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में पहने जानेवाले मंगलसूत्र में एक बॉल के दो हिस्से होते हैं, जो उर्वरता व मातृत्व को सार्थक करते हैं। ये दोनों बॉल्स मंगलसूत्र के गोल काले चेरयू के बीड्स में पिरोए जाते हैं। इसे गले में पहनते हैं, जिससे बुरी नजर से भी बचा जा सके। लक्षणों के स्तर पर देखें, तो यह भारतीय पौराणिक अर्द्धनारीश्वर की संकल्पना से भी मेलखाता है, जिसमें आधा पुरूष व आधी स्त्री मिल कर अर्द्धनारीश्वर बनता है और दोनों ही एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। 
नथ 
ज्योतिष के अनुसार लडकी का नाक छिदवाना उसके मामा के लिए शुभ होता है। दक्षिण भारतीय समाज में, जहां कुछ समुदायों में अपने मामा से शादी करने का रिवाज है, इस प्रथा की खासी अहमियत है। भारत के कुछ भागों में कुंआरी लडकी को अंगूडी पहनायीजाती है और शादी के तुरंत बाद उसे नथ पहना दी जाती है। 
कांच की चूडियाँ 
पूरे भारत में कांच की चूडियों की विशेष अहमियत है। धातु के मुकाबले कांच का हीटिंग पॉइट कहीं ज्यादा होता है। मेटल हीट को बनाए रखता है, जबकि कांच में गरमी रूकती नहीं, इसलिए कांच की चूडियाँ चलन मे आयीं।
करधनी 
एक जमाना थ जब करधनी को विवाहित महिलांए बहुत शौक से पहना करती थीं। अगर असली करधनी पर निगाह डालें, तो यह कमरके चारों तरफ बंध कर कमर के निचले हिस्से व पेट की मांसपेशियों को सपोर्ट देती है, क्योंकि महिलाओं को पानी भरते के साथ ही कई भार उठानेवाले काम करने होते है, इसलिए इससे सपोर्ट मिलता है और रीढ की हड्डी सीधी रहती है। 
बिछुए
ऎसा माना जाता है कि हिन्दू महिलाओं द्वारा पैरों की दूसरी उंगली में पहने गए बिछुए एक नस पर दबाव देते हैं, जिससे सेक्स की इच्छा कंट्रोल होती है। 
शादी की अंगूठी 
शादी व सगाई की अंगूठियों को ईसाई दुल्हनेंउल्टे हाथ में रिंग फिंगर में पहनती हैं। माना जाता है कि इस उंगली की किसी एक नस का सीधा सम्बन्ध ह्वदय से होता है और इस उंगली में अंगूठी पहनने से पति हमेशा ह्वदय के करीब रहता है। 
मेंहदी व आलता 
सोलह श्रंगार में मेहदी व आलते का काफी महत्व है, खासतौर पर शादीशुदा महिलाओं के इसे लगाने के पीछे तो और भी रोमांचक तथ्य मौजूद हैं। मेंहदी व आलता दोनों ठंडक तो पहुंचाते ही हैं, साथ में मेंहदी लगाकर कुछ घंटों के लिए ही सही काम से छुटी तो मिलती है।.

सोलह श्रंगार



शृंगार का उपक्रम यदि पवित्रता और दिव्यता के दृष्टिकोण से किया जाए तो यह प्रेम और अंहिसा का सहायक बनकर समाज में सोम्यता और शुचिता का वाहक बनता है। तभी तो भारतीय संस्कृति में सोलह शृंगार को जीवन का अहं और अभिन्न अंग माना गया है। आइये देखते हैं क्या होते हैं सोलह शृंगार-कैसे करते हैं सोलह शृंगार-

शौच- यानि कि शरीर की आन्तरिक एवं बाह्य पूर्ण शुद्धि।

उबटन- यानि हल्दी, चंदन, गुलाब जल, बेसन तथा अन्य सुगंधित पदार्थौ के मिश्रण को शरीर पर मलना। 

स्नान- यानि कि स्वच्छ, शीतल या ऋतु अनुकूल जल से शरीर को स्वच्छता एवं ताजगी प्रदान करना 

केशबंधन- केश यानि बालों को नहाने के पश्चात स्वच्छ कपड़े से पोंछकर,सुखाकर एवं ऋतु अनुकूल तेलादि सुगंधित द्रव्यों से सम्पंन कर बांधना। 

अंजन- यानि कि आंखों के लिये अनुकूल व औषधीय गुणों से सम्पंन चमकीला पदार्थ पलकों पर लगाना। 

अंगराग- यानि ऐक ऐसा सुगंधित पदार्थ जो शरीर के विभिन्न अंगों पर लगाया जाता है। 

महावर-पैर के तलवों पर मेहंदी की तरह लगाया जाने वाला एक सुन्दर व सुगंधित रंग।

दंतरंजन-यानि कि दांतों को किसी अनुकूल पदार्थ से साफ करना एवं उनके चमक पैदा करना। 

ताम्बूल- यानि कि बढिय़ा किस्म का पान कुछ स्वादिष्ट एवं सुगंधित पदार्थ मिलाकर मुख में धारण करना। 

वस्त्र- ऋतु के अनुकूल तथा देश, काल, वातावरण की दृष्टि से उचित सुन्दर एवं सोभायमान वस्त्र पहनना।

ूषण- यानि कि शोभा में चार चांद लगाने वाले स्वर्ण, चांदी, हीरे-जवाहरात एवं मणि-मोतियों से बने सम्पूर्ण गहने पहनना। 

सुगन्ध- वस्त्राभूषणों के पश्चात शरीर पर चुनिंदा सुगंधित द्रव्य लगाना। पुष्पहार-सुगंधित पदार्थ लगाने के पश्चात ऋतु-अनुकूल फूलों की मालाएं धारण करना 

कुंकुम- बालों को संवारने के बाद में मांग को सिंदूर से सजाना। 

भाल तिलक- यानि कि मस्तक पर चेहरे के अनुकूल तिलक या बिन्दी लगाना। 

ठोड़ी की बिन्दी-अन्य समस्त श्रृंगार के पश्चात अन्त में ठोड़ी यानि चिबुक पर सुन्दर आकृति की बिन्दी लगाना।

हिन्दू धर्म में नववधु के लिए कुछ श्रंगार अनिवार्य माना माने गए हैं।है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी इन सभी श्रंगारों को सुहागन के सुहाग का प्रतीक माना गया है। इसीलिए सभी नववधु के लिए ये सोलह श्रंगार बहुत जरूरी और एक तरह का शुभ शकुन माने गए हैं।