Thursday 19 September 2013

हनुमान चालीसा में चालीस दोहे ही क्यों हैं?

श्रीराम के परम भक्त हनुमानजी हमेशा से ही सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले देवताओं में से एक हैं। शास्त्रों के अनुसार माता सीता के वरदान के प्रभाव से बजरंग बली को अमर बताया गया है। ऐसा माना जाता है आज भी जहां रामचरित मानस या रामायण या सुंदरकांड का पाठ पूरी श्रद्धा एवं भक्ति से किया जाता है वहां हनुमानजी अवश्य प्रकट होते हैं। इन्हें प्रसन्न करने के लिए बड़ी संख्या श्रद्धालु हनुमान चालीसा का पाठ भी करते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि हनुमान चालिसा में चालीस ही दोहे क्यों हैं?

केवल हनुमान चालीसा ही नहीं सभी देवी-देवताओं की प्रमुख स्तुतियों में चालिस ही दोहे होते हैं? विद्वानों के अनुसार चालीसा यानि चालीस, संख्या चालीस, हमारे देवी-देवीताओं की स्तुतियों में चालीस स्तुतियां ही सम्मिलित की जाती है। जैसे श्री हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा, शिव चालीसा आदि। इन स्तुतियों में चालीस दोहे ही क्यों होती है? इसका धार्मिक दृष्टिकोण है। इन चालीस स्तुतियों में संबंधित देवता के चरित्र, शक्ति, कार्य एवं महिमा का वर्णन होता है। चालीस चौपाइयां हमारे जीवन की संपूर्णता का प्रतीक हैं, इनकी संख्या चालीस इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि मनुष्य जीवन 24 तत्वों से निर्मित है और संपूर्ण जीवनकाल में इसके लिए कुल 16 संस्कार निर्धारित किए गए हैं। इन दोनों का योग 40 होता है। इन 24 तत्वों में 5 ज्ञानेंद्रिय, 5 कर्मेंद्रिय, 5 महाभूत, 5 तन्मात्रा, 4 अन्त:करण शामिल है। सोलह संस्कार इस प्रकार है- 1. गर्भाधान संस्कार

2. पुंसवन संस्कार

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार

4. जातकर्म संस्कार

5. नामकरण संस्कार

6. निष्क्रमण संस्कार

7. अन्नप्राशन संस्कार

8. चूड़ाकर्म संस्कार

9. विद्यारम्भ संस्कार

10. कर्णवेध संस्कार

11. यज्ञोपवीत संस्कार

12. वेदारम्भ संस्कार

13. केशान्त संस्कार

14. समावर्तन संस्कार

15. पाणिग्रहण संस्कार

16. अन्त्येष्टि संस्कार

भगवान की इन स्तुतियों में हम उनसे इन तत्वों और संस्कारों का बखान तो करते ही हैं, साथ ही चालीसा स्तुति से जीवन में हुए दोषों की क्षमायाचना भी करते हैं। इन चालीस चौपाइयों में सोलह संस्कार एवं 24 तत्वों का भी समावेश होता है। जिसकी वजह से जीवन की उत्पत्ति है।

अंत समय का एहसास करवाते हैं ---मृत्यु पूर्वाभास !

कहते हैं कि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु होना भी एक सच्चाई है। ईश्वर द्वारा दिए गए इस अनमोल जीवन की सबसे बड़ी खासियत जन्म और मृत्यु के बीच का समय है।
प्राय: सभी धर्मों में मृत्यु और मानव के बीच जो संबंध है उसे किसी ना किसी तरह रेखांकित अवश्य किया गया है। बहुत से लोगों का यह मत है कि मृत्यु एक सच है लेकिन यह कब और कहाँ होगी इसका पता लगा पाना संभव नहीं है लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि भले ही कोई यह ना जान पाए कि मृत्यु कहाँ होगी लेकिन यह कब होगी इसका अनुमान लगा पाना मुमकिन है। अगर हम इसे अनुमान ना कहकर सटीक और सत्य कहें तो भी शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी। 
पराविज्ञान के अनुसार मृत्यु से पहले ही कुछ संकेतकों की सहायता से व्यक्ति पहले ही यह जान सकता है कि उसकी मृत्यु होने वाली है। परवैज्ञानिकों की मानें तो सामान्यत: यह संकेत मृत्यु से नौ महीने पहले ही मिलने शुरू हो जाते हैं। 
अगर कोई व्यक्ति अपनी मां के गर्भ में दस महीने तक रहा है तो यह समय दस महीने हो सकता है और वैसे ही सात महीने रहने वाले व्यक्ति को सात महीने पहले ही संकेत मिलने लगते हैं। 
ध्यान रहे कि मृत्यु के पूर्वाभास से जुड़े लक्षणों को किसी भी लैब टेस्ट या क्लिनिकल परीक्षण से सिद्ध नहीं किया जा सकता बल्कि ये लक्षण केवल उस व्यक्ति को महसूस होते हैं जिसकी मृत्यु होने वाली होती है। 
मृत्यु के पूर्वाभास से जुड़े निम्नलिखित संकेत व्यक्ति को अपना अंत समय नजदीक होने का आभास करवाते हैं: 
समय बीतने के साथ अगर कोई व्यक्ति अपनी नाक की नोक देखने में असमर्थ हो जाता है तो इसका अर्थ यही है कि जल्द ही उसकी मृत्यु होने वाली है. क्‍योंकि उसकी आँखें धीरे-धीरे ऊपर की ओर मुड़ने लगती हैं और मृत्‍यु के समय आँखें पूरी तरह ऊपर की ओर मुड़ जाती हैं। 
मृत्यु से कुछ समय पहले व्यक्ति को आसमान में मौजूद चाँद खंडित लगने लगता है। व्यक्ति को लगता है कि चांद बीच में से दो भागों में बंटा हुआ है, जबकि ऐसा कुछ नहीं होता। 
सामान्य तौर पर व्यक्ति जब आप अपने कान पर हाथ रखते हैं तो उन्हें कुछ आवाज सुनाई देती है लेकिन जिस व्यक्ति का अंत समय निकट होता है उसे किसी भी प्रकार की आवाजें सुनाई देनी बंद हो जाती हैं। 
व्यक्ति को हर समय ऐसा लगता है कि उसके सामने कोई अनजाना चेहरा बैठा है। 
मृत्यु का समय नजदीक आने पर व्यक्ति की परछाई उसका साथ छोड़ जाती है। 
जीवन का सफर पूरा होने पर व्यक्ति को अपने मृत पूर्वजों के साथ रहने का अहसास होता है। 
किसी साये का हर समय साथ रहने जैसा आभास व्यक्ति को अपनी मृत्यु के दो-तीन पहले ही होने लगता है। 
मृत्यु से पहले मानव शरीर में से अजीब सी गंध आने लगती है, जिसे मृत्यु गंध का नाम दिया जाता है। 
दर्पण में व्यक्ति को अपना चेहरा ना दिख कर किसी और का चेहरा दिखाई देने लगे तो स्पष्ट तौर पर मृत्यु 24 घंटे के भीतर हो जाती है। 
नासिका के स्वर अव्यस्थित हो जाने का लक्षण अमूमन मृत्यु के 2-3 दिनों पूर्व प्रकट होता है।

समय का उपयोग

अक्सर युवाओं से यह बात कही जाती है कि वे समय सद्उपयोग करना नहीं जानते और फालतू बातों में समय जाया करते रहते हैं, पर क्या कभी किसी ने इस बात पर गौर किया है कि समय का उपयोग हो सकता है और अगर हुआ भी तो क्या वह मनुष्य के हाथ में है कि किस प्रकार से उपयोग किया जाए या फिर सद्उपयोग किया जाए। 

युवावस्था में व्यक्ति को कितना भी समझाया जाए वह या तो झट से समझ जाएगा या फिर बिल्‍कुल भी नहीं समझेगा। समय का सद्उपयोग करना जरूरी है क्योंकि समय गुजर जाने के बाद लाख प्रयत्न करने के बाद भी वह क्षण वापस नहीं आएगा, इस बात की जानकारी सभी को है और युवाओं को काफी ज्यादा है। इसके बावजूद युवाओं को बार-बार इस बात की ताकीद दी जाती है कि समय को बर्बाद मत करो।

समय के साथ चलने में असल जिंदगी का मजा है और तभी आप अपडेटेड कहलाएँगे और न जाने कितनी बातें हैं समय को लेकर। पर क्या यह जरूरी है कि युवा 24 घंटे बस अपने करियर की तरफ या पढ़ाई की तरफ ही ध्यान दें? क्या यह जरूरी है कि युवा भौतिक जीवन की सभी सुख-सुविधाएँ त्याग कर केवल पढ़ाई पर ध्यान दें? क्या युवाओं को इस प्रकार के बंधनों से चिढ़ है? आदि ऐसे कई प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

दरअसल समय न किसी के लिए रुका है और न ही भविष्य में वह किसी के लिए रुकेगा। उसकी तो अपनी गति है और इस गति में चलने का उसका शाश्वत नियम है और इसमें वह कोई भी कोताही नहीं बरतता है भले ही दुनिया-जहान में कुछ हो उसे पता है कि उसे क्या करना है। वहीं युवाओं की बात करें तब यह तथ्य सामने आता है वे बँधन में नहीं बँधना चाहते और दूसरी ओर समय बंधन में बँधा हुआ है। उसके पास हर सेकंड और मिनट का हिसाब-किताब है।

युवाओं को नियमों-कायदे में बँधना नहीं अच्छा लगता, वे तो अपनी मर्जी के मालिक बनकर जीना चाहते हैं। फिर बात पढ़ाई की हो या फिर एन्जॉयमेंट की क्यों न हो, वे अपनी तरह से कुछ करना चाहते हैं। अगर इस ओर ध्यान दिया जाए तब एक तथ्य उभरकर सामने आता है, वह यह कि युवाओं को आप लक्ष्य दे दें और उस ओर मेहनत करने के लिए प्रेरित करें फिर देखें क्या परिणाम सामने आता है।

आप अगर उन्हें कहेंगे कि इतने प्रतिशत आना ही चाहिए या तुम्हारे दोस्त के इतने प्रतिशत बने हैं तुम्हारे भी बनने ही चाहिए तब जरा मुश्किल हो जाएगी, क्योंकि प्रत्येक युवा अलग साँचे में ढला है। उसका व्यक्तित्व, पसंद-नापसंद अलग है फिर आप उसकी तुलना कर रहे हैं। साथ ही अपनी पसंद भी थोप रहे हैं कि हमें यह चाहिए। इस प्रकार की बातों को सुनकर युवा मन बागी हो जाता है और समय का सद्उपयोग जैसी बातें बेमानी हो जाती हैं।

अगर आपने युवाओं को केवल लक्ष्य दे दिया और वही उसके मन का तब देखिए समय का उपयोग वह किस तरह करता है। वह अपनी बाइक पर लांग ड्राइव पर जाएगा, मॉल में जाएगा और डिस्को थेक में भी जाएगा पर साथ ही वह अपनी जिम्मेदारी को भी समझने लगेगा।

इस कारण युवाओं को समय का उपयोग करने की केवल नसीहत देने भर से काम नहीं चलेगा बल्कि उन्हें जाने-अनजाने यही बताना होगा कि तुम्हारा मनपसंद का लक्ष्य क्या है, अब उस ओर कैसे बढ़ना है, इसका तरीका क्या है आदि बातें युवाओं पर छोड़ देंगे तब परिणाम काफी अच्छे आ सकते हैं।

कुंभ के बाद कहां चले जाते हैं नागा बाबा?

कुंभ, अर्धकुंभ और महाकुंभ आते ही लाखों की संख्या में आपको नागा बाबा डुबकी लगाते हुए दिखाई दे जाएंगे। लेकिन, कभी किसी ने सोचा है कि नागा बाबा कहां से आते हैं और कहां चले जाते हैं?

17 श्रृंगार की हुई संयम से बंधी निर्वस्‍त्र साधुओं की फौज को देखना अद्भुत है। यह नजारा आपको कुंभ के अलावा और कहां नजर आएगा? इन साधुओं को वनवासी संन्यासी कहा जाता है। दरअसल यह कुंभ के अलावा कभी भी सार्वजनिक जीव में दिखाई नहीं देते क्योंकि ये या तो अपने अखाड़े (आश्रम) के भीतर ही रहते हैं या हिमालय की गुफा में या फिर अकेले ही देशभर में पैदल ही घुमते रहते हैं।

जो चले जाते हैं हिमालय : कुंभ के समाप्त होने के बाद अधिकतर साधु अपने शरीर पर भभूत लपेट कर हिमालय की चोटियों के बीच चले जाते हैं। वहां यह अपने गुरु स्थान पर अगले कुंभ तक कठोर तप करते हैं। इस तप के दौरान ये फल-फूल खाकर ही जीवित रहते हैं।

12 साल तक कठोर तप करते वक्‍त उनके बाल कई मीटर लंबे हो जाते हैं। और ये तप तभी संपन्‍न होता है, जब ये कुंभ मेले के दौरान गंगा में डुबकी लगाते हैं। जी हां कहा जाता है कि गंगा स्नान के बाद ही एक नागा साधु का तप खत्म होता है।

त्रिशूल, शंख, तलवार और चिलम धारण किए ये नागा साधु धूनी रमाते हैं। यह शैवपंथ के कट्टर अनुयायी और अपने नियम के पक्के होते हैं। इनमें से कई सिद्ध होते हैं तो कई औघड़।

दश महाविद्या प्रयोग

१ : प्रथम महाविद्या काली : काली मंत्र किसी भी प्रकार की सफलता के लिए उपयुक्त है इस विद्या के प्रयोग से कोई भी बाधा सामने नहीं आती है |
२ : द्वितीय महाविद्या तारा : तारा [ कंकाल मालिनी ] यह सिद्ध विद्या शत्रुओ के नाश करने के लिए व जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए विशेष लाभदाई है |
३ : तृतीय महाविद्या षोडशी : षोडशी [ श्रीविद्या त्रिपुरा ललिता त्रिपुर सुंदरी ] यह सिद्ध विद्या और मोक्ष दात्री है जीवन में पूर्ण सफलता व आर्थिक दृष्टि से उच्च कोटि की सफलता के लिए इस मंत्र की साधना करे |
४ : चतुर्थ महा विद्या भुवनेश्वरी : भुवनेश्वरी [राजराजेश्वरी ] की साधना से विद्या प्राप्त वशीकरण सम्मोहन आदि कार्यो की सिद्धि के लिए इस महाविद्या का प्रयोग करे इस मंत्र के जप से [करे या कराये] वशीकरण प्रयोग विशेषत: लाभ प्राप्त होता है |
५ : पंचम महाविद्या छिन्नमस्ता : छिन्नमस्ता की साधना से मोक्ष विद्या प्राप्त होती है | विशेषत: शत्रु नाश व् शत्रु पराजय तथा मुक़दमे में विजय के लिए इस महाविद्या का प्रयोग किया जाता है |
६ : षष्टम महाविद्या त्रिपुरभैरवी : त्रिपुरभैरवी [ सिद्ध भैरवी ] की साधना से रोग शांति आर्थिक उन्नति सर्वत्र विजय व्यापर में सर्वोपरि होने के लिए त्रिपुरभैरवी का प्रयोग करे |
७ : सप्तम महाविद्या धूमावती : धूमावती [ लक्ष्मी ] की साधना से पुत्र लाभ धन लाभ और शत्रु पर विजय प्राप्ति के लिए अत्यंत लाभ दायक है |
८ : अष्टम महाविद्या बंगलामुखी : इस अनुष्ठान को सावधानी पूर्वक करना चाहिए,नहीं तो विपरीत प्रभाव पड़ सकता है | इस मन्त्र के प्रभाव से [ जप कराने से ] शत्रुओ पर विजय एवं मुकदमो में विजय प्राप्ति तथा विशेष आर्थिक उन्नति के लाभ है |
९ : नवम महाविद्या मातंगी : मातंगी [ सुमुखी उच्चिस्थ चंडालिक ] इसके अनुष्ठान से जीवन में पूर्णता और विवाह के लिए प्रयोग किया जाता है, मनोकामनापूर्ति के लिए इस मन्त्र का प्रयोग करे |
१० : दशम महाविद्या कमला : कमला [ लक्ष्मी नारायणी ] इस मन्त्र के अनुष्ठान से आर्थिक भौतिक क्षेत्र में उच्चतम स्थिति करने के लिए दरिद्रता दूर करने के लिए व्यापर उन्नति तथा लक्ष्मी प्राप्ति के लिए इस मन्त्र का प्रयोग करे |
[ महाविद्या प्रयोग ] 
१ : महाविद्या प्रयोग उस समय किया जाता है जब घर में किसी प्रकार की अशांति हो या बाधा [ भूत प्रेत आदि ] उत्पन्न होती हो जिसके करने परिवार में अशांति हो रही हो तो इस प्रयोग के २१ पाठ कराने अथवा १०८ पाठ कराने व् हवन कराने से तत्काल लाभ प्राप्त होता है | यह प्रयोग अनुभव सिद्ध है | 
[ प्रत्यंगिरा व् विपरीत प्रत्यंगिरा स्त्रोत्र ] 
श्री प्रत्यंगिरा स्त्रोत्र : प्रत्यंगिरा के शास्त्रीय अनुष्ठान मात्र से समस्त शत्रु नष्ट हो जाते है | इसमें साधक को किसी प्रकार की कोई हानी नहीं होता है | इसके कम से कम १०८ पाठ कराने से लाभ शुरु हो जाता है | मुक़दमे में विजय तथा प्रबल शत्रु क्यों न हो ,उसकी पराजय अवश्य होती है 
श्री विपरीत प्रत्यंगिरा स्त्रोत्र : विपरीत प्रत्यंगिरा स्त्रोत्र के पाठ करने मात्र से शत्रु का विशेष क्षय यहाँ तक की वह मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है , तथा इस पाठ के साथ - साथ साधक की सुरक्षा भी होती है | इस का कम से कम १०८ पाठ या संभव हो तो ११०० पाठ करवाहोता हैवे तो सफलता अवश्य प्राप्त होता है

श्राद्ध प्रकरण

१ : गया श्राद्ध : गया श्राद्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से पितरो को मृत्यु लोक से देव लोक का स्थान मिलता है अपने पितर चाहे मृत्यु से मरे हो या अकाल मृत्यु से सब का उद्धार [ कल्याण ] हो जाता है | यह कार्यक्रम खरमाश या पूष मास में किया जाता है | जाने के पहले पितरो को निमंत्रण दिया जाता है | तब गया का कार्यक्रम किया जाता है | 

२ : पार्वण श्राद्ध : पार्वण श्राद्ध गया जाते समय ही किया जाता है तथा सभी पितर गणों को अभी मंत्रित करके उसी दिन गया ले जाते है | वैसे इसे महालय श्राद्ध कहा जाता है | इसे पितृ पक्ष के अंतिम दिन सभी पितरो के निमित्त किया जाता है | 

३ : त्रिपिंडी श्राद्ध : त्रिपिंडी श्राद्ध गया का विकल्प कहते है | इसे ही पितृ शांति कहते है | इस कार्य के करने से घर में शांति होती है तथा पितृ प्रसन्न होते है | 

४ : नारायण बलि श्राद्ध : जब किसी प्राणी की अकाल मृत्यु [ जलने ,कटने ,फाशी ,जहर खाने ,सर्प काटने, ट्रेन से कटकर आदि ] होती है | तो उसकी सद्गति [ कल्याण ] के लिए मृत्यु से इग्यराहावे [ ११ ] दिन इस श्राद्ध का प्रयोग किया जाता है | 

५ : वार्षिक श्राद्ध : प्राणी के मृत्यु के एक वर्ष बाद इस श्राद्ध को किया जाता है | लेकिन आज कल मृत्यु के अठारहवे दिन ही इस श्राद्ध को संपन्न कर दिया जाता है | 

६ : नांदी श्राद्ध : कभी भी हम शुभ काम या पूजन करते है तो देवताओ के साथ पितरो का आवाहन किया जाता है व् उनका श्राद्ध किया जाता है | जिसे हम नांदी श्राद्ध कहते है | 

७ : पंचक शांति : जब प्राणी की मृत्यु पंचक [ धनिष्ठा , शतभिषा , पूर्व भाद्रपद , उत्तर भाद्रपद ,रेवती ] नक्षत्र में हो जाय तो उशकी शांति शव [मिटटी] जलाते समय या ११वे दिन इसकी शांति की जाती है | 

८ : वृखोत्सर्ग प्रयोग : वृखोत्सर्ग प्रयोग मृतक व्यक्ति के स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करता है | यह प्रयोग सभी प्रयोगों में वृहद् है | यह प्रयोग भी ११वे दिन किया जाता है | ल्याण होगा ]

श्राद्ध प्रकरण

१ : गया श्राद्ध : गया श्राद्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से पितरो को मृत्यु लोक से देव लोक का स्थान मिलता है अपने पितर चाहे मृत्यु से मरे हो या अकाल मृत्यु से सब का उद्धार [ कल्याण ] हो जाता है | यह कार्यक्रम खरमाश या पूष मास में किया जाता है | जाने के पहले पितरो को निमंत्रण दिया जाता है | तब गया का कार्यक्रम किया जाता है | 

२ : पार्वण श्राद्ध : पार्वण श्राद्ध गया जाते समय ही किया जाता है तथा सभी पितर गणों को अभी मंत्रित करके उसी दिन गया ले जाते है | वैसे इसे महालय श्राद्ध कहा जाता है | इसे पितृ पक्ष के अंतिम दिन सभी पितरो के निमित्त किया जाता है | 

३ : त्रिपिंडी श्राद्ध : त्रिपिंडी श्राद्ध गया का विकल्प कहते है | इसे ही पितृ शांति कहते है | इस कार्य के करने से घर में शांति होती है तथा पितृ प्रसन्न होते है | 

४ : नारायण बलि श्राद्ध : जब किसी प्राणी की अकाल मृत्यु [ जलने ,कटने ,फाशी ,जहर खाने ,सर्प काटने, ट्रेन से कटकर आदि ] होती है | तो उसकी सद्गति [ कल्याण ] के लिए मृत्यु से इग्यराहावे [ ११ ] दिन इस श्राद्ध का प्रयोग किया जाता है | 

५ : वार्षिक श्राद्ध : प्राणी के मृत्यु के एक वर्ष बाद इस श्राद्ध को किया जाता है | लेकिन आज कल मृत्यु के अठारहवे दिन ही इस श्राद्ध को संपन्न कर दिया जाता है | 

६ : नांदी श्राद्ध : कभी भी हम शुभ काम या पूजन करते है तो देवताओ के साथ पितरो का आवाहन किया जाता है व् उनका श्राद्ध किया जाता है | जिसे हम नांदी श्राद्ध कहते है | 

७ : पंचक शांति : जब प्राणी की मृत्यु पंचक [ धनिष्ठा , शतभिषा , पूर्व भाद्रपद , उत्तर भाद्रपद ,रेवती ] नक्षत्र में हो जाय तो उशकी शांति शव [मिटटी] जलाते समय या ११वे दिन इसकी शांति की जाती है | 

८ : वृखोत्सर्ग प्रयोग : वृखोत्सर्ग प्रयोग मृतक व्यक्ति के स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करता है | यह प्रयोग सभी प्रयोगों में वृहद् है | यह प्रयोग भी ११वे दिन किया जाता है | ल्याण होगा ]

श्राध

आज से श्राध पक्ष सुरु हो ग्या है | जिसमे हम लोग अपने पितरो को श्राध अर्पण व तर्पण करते है, इन दिनो पितर देवलोक से मरत्यू लोक मे आते है और अपने वंशजो द्वारा दिया भावपूर्ण भोजन गरहन करते है |मेरी और से उन सभी दिव्यात्माओ को नमन |

हिन्दू धर्म में मान्यता है कि शरीर नष्ट हो जाने के बाद भी आत्मा अजर-अमर रहती है। वह अपने कार्यों के भोग भोगने के लिए नाना प्रकार की योनियों में विचरण करती है। शास्त्रों में मृत्योपरांत मनुष्य की अवस्था भेद से उसके कल्याण के लिए समय-समय पर किए जाने वाले कृत्यों का निरूपण हुआ है। 

सामान्यत: जीवन में पाप और पुण्य दोनों होते हैं। हिन्दू मान्यता के अनुसार पुण्य का फल स्वर्ग और पाप का फल नर्क होता है। नर्क में जीवात्मा को बहुत यातनाएं भोगनी पड़ती हैं। पुण्यात्मा मनुष्य योनि तथा देवयोनि को प्राप्त करती है। इन योनियों के बीच एक योनि और होती है वह है प्रेत योनि। वायु रूप में यह जीवात्मा मनुष्य का मन:शरीर है, जो अपने मोह या द्वेष के कारण इस पृथ्‍वी पर रहता है। पितृ योनि प्रेत योनि से ऊपर है तथा पितृलोक में रहती है। 

भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिनों तक का समय सोलह श्राद्ध या श्राद्ध पक्ष कहलाता है। शास्त्रों में देवकार्यों से पूर्व पितृ कार्य करने का निर्देश दिया गया है। श्राद्ध से केवल पितृ ही तृप्त नहीं होते अपितु समस्त देवों से लेकर वनस्पतियां तक तृप्त होती हैं।

श्राद्ध करने वाले का सांसारिक जीवन सुखमय बनता है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसी मान्यता है कि श्राद्ध न करने से पितृ क्षुधा से त्रस्त होकर अपने सगे-संबंधियों को कष्ट और शाप देते हैं। अपने कर्मों के अनुसार जीव अलग-अलग योनियों में भोग भोगते हैं, जहां मंत्रों द्वारा संकल्पित हव्य-कव्य को पितर प्राप्त कर लेते हैं। 
श्राद्ध की साधारणत: दो प्रक्रियाएं हैं- एक पिंडदान और दूसरी ब्राह्मण भोजन। ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को तथा पितर कव्य को खाते हैं। पितर स्मरण मात्र से ही श्राद्ध प्रदेश में आते हैं तथा भोजनादि प्राप्त कर तृप्त होते हैं। एकाधिक पुत्र हों और वे अलग-अलग रहते हो तो उन सभी को श्राद्ध करना चाहिए। ब्राह्मण भोजन के साथ पंचबलि कर्म भी होता है, जिसका विशेष महत्व है।
शास्त्रों में पांच तरह की बलि बताई गई हैं, जिसका श्राद्ध में विशेष महत्व है।
1. गौ बलि
2. श्वान बलि
3. काक बलि
4. देवादि बलि 
5. पिपीलिका बलि


यहां बल‍ि से तात्पर्य किसी पशु या पक्षी की हत्या से नहीं है, बल्कि श्राद्ध के दिन जो भोजन बनाया जाता है। उसमें से इनको भी खिलाना चाहिए। इसे ही बलि कहा जाता है। 
यूं तो एक आम मान्यता है कि जिस भी तिथि को किसी महिला या पुरुष का निधन हुआ हो उसी तिथि को संबंधित व्यक्ति का श्राद्ध किया जाता है, लेकिन आपकी जानकारी के लिए हम कुछ खास बातें यहां बता रहे हैं...

* सौभाग्यवती स्त्री का श्राद्ध नवमी के दिन किया जाता है।

* यदि कोई व्यक्ति संन्यासी है तो उसका श्राद्ध द्वादशी के दिन किया जाता है।

* शस्त्राघात या किसी अन्य दुर्घटना में मारे गए व्यक्ति का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।

* यदि हमें अपने किसी पूर्वज के निधन की तिथि नहीं मालूम हो तो उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है। इसीलिए इसे सर्वपितृ अमावस्या भी कहा जाता है।

* आश्विन शुक्ल की प्रतिपदा को भी श्राद्ध करने का विधान है। इस दिन दादी और नानी का श्राद्ध किया जाता है। 
* श्राद्ध के दौरान यह सात चीजें वर्जित मानी गई- दंतधावन, ताम्बूल भक्षण, तेल मर्दन, उपवास, संभोग, औषध पान और परान्न भक्षण।

* श्राद्ध में स्टील के पात्रों का निषेध है। 

* श्राद्ध में रंगीन पुष्प को भी निषेध माना गया है।

* गंदा और बासा अन्न, चना, मसूर, गाजर, लौकी, कुम्हड़ा, बैंगन, हींग, शलजम, मांस, लहसुन, प्याज, काला नमक, जीरा आदि भी श्राद्ध में निषिद्ध माने गए हैं।
 * संकल्प लेकर ब्राह्मण भोजन कराएं या सीधा इत्यादि दें। ब्राह्मण को दक्षिणा अवश्य दें।

* भोजन कैसा है, यह न पूछें।

* ब्राह्मण को भी भोजन की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए।

* सीधा पूरे परिवार के हिसाब से दें।

इस प्रकार आप पितरों को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद लेकर अपने कष्ट दूर कर सकते हैं। यूं भी यह व्यक्ति का कर्तव्य है, जिसे पूर्ण कर पूरे परिवार को सुखी एवं ऐश्वर्यवान बना सकते हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि श्राद्ध करते समय संकल्प अवश्य लें

Sunday 1 September 2013

चरित्र नारी का ही क्यों ?


चरित्र जैसे शब्द का सबसे गहरा सम्बन्ध सिर्फ नारी क्यों माना जाता है ? हर आँख उठती है उसी की ओर क्यों ? शक सबसे अधिक उसी के चरित्र पर पर किया जाता है. वह भी उससे कुछ भी पूछे बिना। वैसे तो सदियों से ये परंपरा चली आ रही है कि नारी सीता की तरह अग्निपरीक्षा देने के लिए बाध्य होती है। 
ऐसे कई मामले .......... , जिसमें सिर्फ संदेह की बिला पर औरतों को मार दिया जाता है क्योंकि उनके पति , पिता या भाई को उनके चरित्र पर संदेह हो जाता है या उनका कहीं प्रेम प्रसंग होता है जो उनके घर वालों को पसंद नहीं होता है और फिर दोनों को या फिर किसी एक को मौत घाट उतार दिया जाता है। इसका उन्हें पूरा हक होता है जैसे बेटी , बहन या पत्नी कोई जीते जागते इंसान न होकर उनकी जागीर हों , जिसे सांस लेने से लेकर बोलने , देखने और सोचने तक का अधिकार नहीं है। जरा सा कोई काम उनकी सोच या दायरे से बाहर हुआ नहीं कि--
--- उनके मुंह पर कालिख पुत जाती है
---वे समाज में मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहते हैं।
---उनके खानदान के नाम पर बट्टा लगने लगता है.
---वे अपने पुरुष होने पर लानत मलानत भेजने लगते हैं।
वही लोग जो आज नारिओं के प्रगति की ओर बढ़ते कदम की दुहाई देते हैं और उसके बाद भी उन्हें अपना चरित्र प्रमाण-पत्र साथ लेकर चलना होता है क्योंकि ये एक ऐसा आक्षेप है जिसमें शिक्षा , पद , रुतबा या उपलब्धियां कोई भी ढाल नहीं बनता है। आप आगे बढ़ें लेकिन इस समाज के मन से। आपने आपातकाल में किसी से लिफ्ट ले ली , सहायता ली नहीं की संदेह के घेरे में कैद। इसमें साथ में कौन है , किस उम्र का है ? उससे क्या रिश्ता है ? ये भी कोई मतलब नहीं रखता है।
अगर इसे हम पुरुष के मामले में देखें तो खुले आम एक पुरुष दो महिलाओं को पत्नी के तरह से रख कर रहता है। अभी हाल ही मैं ओम पुरी के मामले में पढ़ा कि उसकी पत्नी ने घरेलु हिंसा का मामला कोर्ट में दाखिल किया। ओम पुरी की दो पत्नियाँ है और वह दोनों के पास रहते है। यहाँ चरित्र का प्रमाण पत्र कैसे दिया जा सकता है ? एक वही क्यों ? कितने लोग एक पत्नी के रहते हुए दूसरी को पत्नी बना कर रह रहे होते हैं, लेकिन उनके चरित्र पर कोई उंगली नहीं उठा सकता क्योंकि वे समाज के सर्वेसर्वा जो है।
एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों और नामी गिरामी लोग तक एक पत्नी के रहते हुए ( बिना तलाक और अपने ही किसी घर में रखते हुए ) दूसरी पत्नी को भी रखते हैं लेकिन उनकी कोई बोल नहीं सकता है बल्कि पत्नी भी अपने भाग्य का दोष मानते हुए अपनी नियति मान कर इसको स्वीकार कर लेती है। अगर कोई औरत ऐसा करे तो क्या ये समाज और पुरुष समाज उसको जीने देगा ? शायद नहीं ( अपवाद इसके भी हो सकते हैं लेकिन ये पुरुषों की तरह से खुले तौर पर स्वीकार होता है। पुरुष ही क्यों इसे कोई स्त्री भी स्वीकार नहीं करती है। क्योंकि ये चरित्र सिर्फ नारी के साथ जुड़ा प्रश्न सदैव रहा है और रहेगा।