Thursday 3 October 2013

नवरात्रि की पूर्व संध्या पर....2013


शारदीय नवरात्री कि ढेर सारी शुभकामनाएं!!
नवरात्री 5 अक्टूम्बर से शुरू है...महाशक्ति की आराधना का पर्व है “नवरात्री!!
देवी माँ के नौ रूप के बारे में जाने..!!
1. शैल पुत्री- माँ दुर्गा का प्रथम रूप है शैल पुत्री। पर्वतराज हिमालय के यहाँ जन्म होने से इन्हें शैल पुत्री कहा जाता है। नवरात्रि की प्रथम तिथि को शैल पुत्री की पूजा की जाती है। इनके पूजन से भक्त सदा धन-धान्य से परिपूर्ण पूर्ण रहते हैं।

2. ब्रह्मचारिणी- माँ दुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी है। माँ दुर्गा का यह रूप भक्तों और साधकों को अनंत कोटि फल प्रदान करने वाली है। इनकी उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की भावना जागृत होती है।

3. चंद्रघंटा- माँ दुर्गा का तीसरा स्वरूप चंद्रघंटा है। इनकी आराधना तृतीया को की जाती है। इनकी उपासना से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। वीरता के गुणों में वृद्धि होती है। स्वर में दिव्य अलौकिक माधुर्य का समावेश होता है व आकर्षण बढ़ता है।

4. कुष्मांडा- चतुर्थी के दिन माँ कुष्मांडा की आराधना की जाती है। इनकी उपासना से सिद्धियों, निधियों को प्राप्त कर समस्त रोग-शोक दूर होकर आयु व यश में वृद्धि होती है।

5. स्कंदमाता- नवरात्रि का पाँचवाँ दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी है। माँ अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती है।

6. कात्यायनी- माँ का छठवाँ रूप कात्यायनी है। छठे दिन इनकी पूजा-अर्चना की जाती है। इनके पूजन से अद्भुत शक्ति का संचार होता है। कात्यायनी साधक को दुश्मनों का संहार करने में सक्षम बनाती है। इनका ध्यान गोधूली बेला में करना होता है।

7. कालरात्रि- नवरात्रि की सप्तमी के दिन माँ काली रात्रि की आराधना का विधान है। इनकी पूजा-अर्चना करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है व दुश्मनों का नाश होता है। तेज बढ़ता है।

8. महागौरी- देवी का आठवाँ रूप माँ गौरी है। इनका अष्टमी के दिन पूजन का विधान है। इनकी पूजा सारा संसार करता है। महागौरी की पूजन करने से समस्त पापों का क्षय होकर क्रांति बढ़ती है। सुख में वृद्धि होती है। शत्रु-शमन होता है।

9. सिद्धिदात्री- माँ सिद्धिदात्री की आराधना नवरात्रि की नवमी के दिन किया जाता है। इनकी आराधना से जातक अणिमा, लघिमा, प्राप्ति,प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, सर्वकामावसांयिता, दूर श्रवण, परकाया प्रवेश, वाक् सिद्धि, अमरत्व, भावना सिद्धि आदि समस्तनव-निधियों की प्राप्ति होती है।

विधि व शुभ मुहूर्त

पवित्र स्थान की मिट्टी से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं बोएं। फिर उनके ऊपर अपनी शक्ति के अनुसार बनवाए गए सोने, तांबे अथवा मिट्टी के कलश की विधिपूर्वक स्थापित करें। कलश के ऊपर सोना, चांदी, तांबा, मिट्टी, पत्थर या चित्रमयी मूर्ति की प्रतिष्ठा करें। मूर्ति यदि कच्ची मिट्टी, कागज या सिंदूर आदि से बनी हो और स्नानादि से उसमें विकृति आने की संभावना हो तो उसके ऊपर शीशा लगा दें। मूर्ति न हो तो कलश के पीछे स्वस्तिक और उसके दोनों कोनों में बनाकर दुर्गाजी का चित्र पुस्तक तथा शालग्राम को विराजित कर भगवान विष्णु का पूजन करें। पूजन सात्विक हो, राजस या तामसिक नहीं, इस बात का विशेष ध्यान रखें। नवरात्रि व्रत के आरंभ में स्वस्तिक वाचन-शांतिपाठ करके संकल्प करें और सर्वप्रथम भगवान श्रीगणेश की पूजा कर मातृका, लोकपाल, नवग्रह व वरुण का सविधि पूजन करें। फिर मुख्य मूर्ति का षोडशोपचार पूजन करें। दुर्गादेवी की आराधना-अनुष्ठान में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती का पूजन तथा मार्कण्डेयपुराणान्तर्गत निहित श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ नौ दिनों तक प्रतिदिन करना चाहिए।

घट स्थापना के शुभ मुहूर्त- सुबह 06:31 से 08:47 तक (चर लग्न तुला) सुबह 08:47 से 11:02 तक (स्थिर लग्न वृश्चिक) सुबह 09:18 से 10:45 तक (चर का चौघडिय़ा) सुबह 10:45 से दोपहर 12:12 तक (लाभ का चौघडिय़ा) दोपहर 11.49 से 12:35 (अभिजीत मुहूर्त) दोपहर 12:12 से 01:38 तक (अमृत का चौघडिय़ा) शाम 07:38 से रात 09:36 तक (स्थिर लग्न वृषभ)

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Thursday 19 September 2013

हनुमान चालीसा में चालीस दोहे ही क्यों हैं?

श्रीराम के परम भक्त हनुमानजी हमेशा से ही सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले देवताओं में से एक हैं। शास्त्रों के अनुसार माता सीता के वरदान के प्रभाव से बजरंग बली को अमर बताया गया है। ऐसा माना जाता है आज भी जहां रामचरित मानस या रामायण या सुंदरकांड का पाठ पूरी श्रद्धा एवं भक्ति से किया जाता है वहां हनुमानजी अवश्य प्रकट होते हैं। इन्हें प्रसन्न करने के लिए बड़ी संख्या श्रद्धालु हनुमान चालीसा का पाठ भी करते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि हनुमान चालिसा में चालीस ही दोहे क्यों हैं?

केवल हनुमान चालीसा ही नहीं सभी देवी-देवताओं की प्रमुख स्तुतियों में चालिस ही दोहे होते हैं? विद्वानों के अनुसार चालीसा यानि चालीस, संख्या चालीस, हमारे देवी-देवीताओं की स्तुतियों में चालीस स्तुतियां ही सम्मिलित की जाती है। जैसे श्री हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा, शिव चालीसा आदि। इन स्तुतियों में चालीस दोहे ही क्यों होती है? इसका धार्मिक दृष्टिकोण है। इन चालीस स्तुतियों में संबंधित देवता के चरित्र, शक्ति, कार्य एवं महिमा का वर्णन होता है। चालीस चौपाइयां हमारे जीवन की संपूर्णता का प्रतीक हैं, इनकी संख्या चालीस इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि मनुष्य जीवन 24 तत्वों से निर्मित है और संपूर्ण जीवनकाल में इसके लिए कुल 16 संस्कार निर्धारित किए गए हैं। इन दोनों का योग 40 होता है। इन 24 तत्वों में 5 ज्ञानेंद्रिय, 5 कर्मेंद्रिय, 5 महाभूत, 5 तन्मात्रा, 4 अन्त:करण शामिल है। सोलह संस्कार इस प्रकार है- 1. गर्भाधान संस्कार

2. पुंसवन संस्कार

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार

4. जातकर्म संस्कार

5. नामकरण संस्कार

6. निष्क्रमण संस्कार

7. अन्नप्राशन संस्कार

8. चूड़ाकर्म संस्कार

9. विद्यारम्भ संस्कार

10. कर्णवेध संस्कार

11. यज्ञोपवीत संस्कार

12. वेदारम्भ संस्कार

13. केशान्त संस्कार

14. समावर्तन संस्कार

15. पाणिग्रहण संस्कार

16. अन्त्येष्टि संस्कार

भगवान की इन स्तुतियों में हम उनसे इन तत्वों और संस्कारों का बखान तो करते ही हैं, साथ ही चालीसा स्तुति से जीवन में हुए दोषों की क्षमायाचना भी करते हैं। इन चालीस चौपाइयों में सोलह संस्कार एवं 24 तत्वों का भी समावेश होता है। जिसकी वजह से जीवन की उत्पत्ति है।

अंत समय का एहसास करवाते हैं ---मृत्यु पूर्वाभास !

कहते हैं कि जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु होना भी एक सच्चाई है। ईश्वर द्वारा दिए गए इस अनमोल जीवन की सबसे बड़ी खासियत जन्म और मृत्यु के बीच का समय है।
प्राय: सभी धर्मों में मृत्यु और मानव के बीच जो संबंध है उसे किसी ना किसी तरह रेखांकित अवश्य किया गया है। बहुत से लोगों का यह मत है कि मृत्यु एक सच है लेकिन यह कब और कहाँ होगी इसका पता लगा पाना संभव नहीं है लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि भले ही कोई यह ना जान पाए कि मृत्यु कहाँ होगी लेकिन यह कब होगी इसका अनुमान लगा पाना मुमकिन है। अगर हम इसे अनुमान ना कहकर सटीक और सत्य कहें तो भी शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी। 
पराविज्ञान के अनुसार मृत्यु से पहले ही कुछ संकेतकों की सहायता से व्यक्ति पहले ही यह जान सकता है कि उसकी मृत्यु होने वाली है। परवैज्ञानिकों की मानें तो सामान्यत: यह संकेत मृत्यु से नौ महीने पहले ही मिलने शुरू हो जाते हैं। 
अगर कोई व्यक्ति अपनी मां के गर्भ में दस महीने तक रहा है तो यह समय दस महीने हो सकता है और वैसे ही सात महीने रहने वाले व्यक्ति को सात महीने पहले ही संकेत मिलने लगते हैं। 
ध्यान रहे कि मृत्यु के पूर्वाभास से जुड़े लक्षणों को किसी भी लैब टेस्ट या क्लिनिकल परीक्षण से सिद्ध नहीं किया जा सकता बल्कि ये लक्षण केवल उस व्यक्ति को महसूस होते हैं जिसकी मृत्यु होने वाली होती है। 
मृत्यु के पूर्वाभास से जुड़े निम्नलिखित संकेत व्यक्ति को अपना अंत समय नजदीक होने का आभास करवाते हैं: 
समय बीतने के साथ अगर कोई व्यक्ति अपनी नाक की नोक देखने में असमर्थ हो जाता है तो इसका अर्थ यही है कि जल्द ही उसकी मृत्यु होने वाली है. क्‍योंकि उसकी आँखें धीरे-धीरे ऊपर की ओर मुड़ने लगती हैं और मृत्‍यु के समय आँखें पूरी तरह ऊपर की ओर मुड़ जाती हैं। 
मृत्यु से कुछ समय पहले व्यक्ति को आसमान में मौजूद चाँद खंडित लगने लगता है। व्यक्ति को लगता है कि चांद बीच में से दो भागों में बंटा हुआ है, जबकि ऐसा कुछ नहीं होता। 
सामान्य तौर पर व्यक्ति जब आप अपने कान पर हाथ रखते हैं तो उन्हें कुछ आवाज सुनाई देती है लेकिन जिस व्यक्ति का अंत समय निकट होता है उसे किसी भी प्रकार की आवाजें सुनाई देनी बंद हो जाती हैं। 
व्यक्ति को हर समय ऐसा लगता है कि उसके सामने कोई अनजाना चेहरा बैठा है। 
मृत्यु का समय नजदीक आने पर व्यक्ति की परछाई उसका साथ छोड़ जाती है। 
जीवन का सफर पूरा होने पर व्यक्ति को अपने मृत पूर्वजों के साथ रहने का अहसास होता है। 
किसी साये का हर समय साथ रहने जैसा आभास व्यक्ति को अपनी मृत्यु के दो-तीन पहले ही होने लगता है। 
मृत्यु से पहले मानव शरीर में से अजीब सी गंध आने लगती है, जिसे मृत्यु गंध का नाम दिया जाता है। 
दर्पण में व्यक्ति को अपना चेहरा ना दिख कर किसी और का चेहरा दिखाई देने लगे तो स्पष्ट तौर पर मृत्यु 24 घंटे के भीतर हो जाती है। 
नासिका के स्वर अव्यस्थित हो जाने का लक्षण अमूमन मृत्यु के 2-3 दिनों पूर्व प्रकट होता है।

समय का उपयोग

अक्सर युवाओं से यह बात कही जाती है कि वे समय सद्उपयोग करना नहीं जानते और फालतू बातों में समय जाया करते रहते हैं, पर क्या कभी किसी ने इस बात पर गौर किया है कि समय का उपयोग हो सकता है और अगर हुआ भी तो क्या वह मनुष्य के हाथ में है कि किस प्रकार से उपयोग किया जाए या फिर सद्उपयोग किया जाए। 

युवावस्था में व्यक्ति को कितना भी समझाया जाए वह या तो झट से समझ जाएगा या फिर बिल्‍कुल भी नहीं समझेगा। समय का सद्उपयोग करना जरूरी है क्योंकि समय गुजर जाने के बाद लाख प्रयत्न करने के बाद भी वह क्षण वापस नहीं आएगा, इस बात की जानकारी सभी को है और युवाओं को काफी ज्यादा है। इसके बावजूद युवाओं को बार-बार इस बात की ताकीद दी जाती है कि समय को बर्बाद मत करो।

समय के साथ चलने में असल जिंदगी का मजा है और तभी आप अपडेटेड कहलाएँगे और न जाने कितनी बातें हैं समय को लेकर। पर क्या यह जरूरी है कि युवा 24 घंटे बस अपने करियर की तरफ या पढ़ाई की तरफ ही ध्यान दें? क्या यह जरूरी है कि युवा भौतिक जीवन की सभी सुख-सुविधाएँ त्याग कर केवल पढ़ाई पर ध्यान दें? क्या युवाओं को इस प्रकार के बंधनों से चिढ़ है? आदि ऐसे कई प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

दरअसल समय न किसी के लिए रुका है और न ही भविष्य में वह किसी के लिए रुकेगा। उसकी तो अपनी गति है और इस गति में चलने का उसका शाश्वत नियम है और इसमें वह कोई भी कोताही नहीं बरतता है भले ही दुनिया-जहान में कुछ हो उसे पता है कि उसे क्या करना है। वहीं युवाओं की बात करें तब यह तथ्य सामने आता है वे बँधन में नहीं बँधना चाहते और दूसरी ओर समय बंधन में बँधा हुआ है। उसके पास हर सेकंड और मिनट का हिसाब-किताब है।

युवाओं को नियमों-कायदे में बँधना नहीं अच्छा लगता, वे तो अपनी मर्जी के मालिक बनकर जीना चाहते हैं। फिर बात पढ़ाई की हो या फिर एन्जॉयमेंट की क्यों न हो, वे अपनी तरह से कुछ करना चाहते हैं। अगर इस ओर ध्यान दिया जाए तब एक तथ्य उभरकर सामने आता है, वह यह कि युवाओं को आप लक्ष्य दे दें और उस ओर मेहनत करने के लिए प्रेरित करें फिर देखें क्या परिणाम सामने आता है।

आप अगर उन्हें कहेंगे कि इतने प्रतिशत आना ही चाहिए या तुम्हारे दोस्त के इतने प्रतिशत बने हैं तुम्हारे भी बनने ही चाहिए तब जरा मुश्किल हो जाएगी, क्योंकि प्रत्येक युवा अलग साँचे में ढला है। उसका व्यक्तित्व, पसंद-नापसंद अलग है फिर आप उसकी तुलना कर रहे हैं। साथ ही अपनी पसंद भी थोप रहे हैं कि हमें यह चाहिए। इस प्रकार की बातों को सुनकर युवा मन बागी हो जाता है और समय का सद्उपयोग जैसी बातें बेमानी हो जाती हैं।

अगर आपने युवाओं को केवल लक्ष्य दे दिया और वही उसके मन का तब देखिए समय का उपयोग वह किस तरह करता है। वह अपनी बाइक पर लांग ड्राइव पर जाएगा, मॉल में जाएगा और डिस्को थेक में भी जाएगा पर साथ ही वह अपनी जिम्मेदारी को भी समझने लगेगा।

इस कारण युवाओं को समय का उपयोग करने की केवल नसीहत देने भर से काम नहीं चलेगा बल्कि उन्हें जाने-अनजाने यही बताना होगा कि तुम्हारा मनपसंद का लक्ष्य क्या है, अब उस ओर कैसे बढ़ना है, इसका तरीका क्या है आदि बातें युवाओं पर छोड़ देंगे तब परिणाम काफी अच्छे आ सकते हैं।

कुंभ के बाद कहां चले जाते हैं नागा बाबा?

कुंभ, अर्धकुंभ और महाकुंभ आते ही लाखों की संख्या में आपको नागा बाबा डुबकी लगाते हुए दिखाई दे जाएंगे। लेकिन, कभी किसी ने सोचा है कि नागा बाबा कहां से आते हैं और कहां चले जाते हैं?

17 श्रृंगार की हुई संयम से बंधी निर्वस्‍त्र साधुओं की फौज को देखना अद्भुत है। यह नजारा आपको कुंभ के अलावा और कहां नजर आएगा? इन साधुओं को वनवासी संन्यासी कहा जाता है। दरअसल यह कुंभ के अलावा कभी भी सार्वजनिक जीव में दिखाई नहीं देते क्योंकि ये या तो अपने अखाड़े (आश्रम) के भीतर ही रहते हैं या हिमालय की गुफा में या फिर अकेले ही देशभर में पैदल ही घुमते रहते हैं।

जो चले जाते हैं हिमालय : कुंभ के समाप्त होने के बाद अधिकतर साधु अपने शरीर पर भभूत लपेट कर हिमालय की चोटियों के बीच चले जाते हैं। वहां यह अपने गुरु स्थान पर अगले कुंभ तक कठोर तप करते हैं। इस तप के दौरान ये फल-फूल खाकर ही जीवित रहते हैं।

12 साल तक कठोर तप करते वक्‍त उनके बाल कई मीटर लंबे हो जाते हैं। और ये तप तभी संपन्‍न होता है, जब ये कुंभ मेले के दौरान गंगा में डुबकी लगाते हैं। जी हां कहा जाता है कि गंगा स्नान के बाद ही एक नागा साधु का तप खत्म होता है।

त्रिशूल, शंख, तलवार और चिलम धारण किए ये नागा साधु धूनी रमाते हैं। यह शैवपंथ के कट्टर अनुयायी और अपने नियम के पक्के होते हैं। इनमें से कई सिद्ध होते हैं तो कई औघड़।

दश महाविद्या प्रयोग

१ : प्रथम महाविद्या काली : काली मंत्र किसी भी प्रकार की सफलता के लिए उपयुक्त है इस विद्या के प्रयोग से कोई भी बाधा सामने नहीं आती है |
२ : द्वितीय महाविद्या तारा : तारा [ कंकाल मालिनी ] यह सिद्ध विद्या शत्रुओ के नाश करने के लिए व जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए विशेष लाभदाई है |
३ : तृतीय महाविद्या षोडशी : षोडशी [ श्रीविद्या त्रिपुरा ललिता त्रिपुर सुंदरी ] यह सिद्ध विद्या और मोक्ष दात्री है जीवन में पूर्ण सफलता व आर्थिक दृष्टि से उच्च कोटि की सफलता के लिए इस मंत्र की साधना करे |
४ : चतुर्थ महा विद्या भुवनेश्वरी : भुवनेश्वरी [राजराजेश्वरी ] की साधना से विद्या प्राप्त वशीकरण सम्मोहन आदि कार्यो की सिद्धि के लिए इस महाविद्या का प्रयोग करे इस मंत्र के जप से [करे या कराये] वशीकरण प्रयोग विशेषत: लाभ प्राप्त होता है |
५ : पंचम महाविद्या छिन्नमस्ता : छिन्नमस्ता की साधना से मोक्ष विद्या प्राप्त होती है | विशेषत: शत्रु नाश व् शत्रु पराजय तथा मुक़दमे में विजय के लिए इस महाविद्या का प्रयोग किया जाता है |
६ : षष्टम महाविद्या त्रिपुरभैरवी : त्रिपुरभैरवी [ सिद्ध भैरवी ] की साधना से रोग शांति आर्थिक उन्नति सर्वत्र विजय व्यापर में सर्वोपरि होने के लिए त्रिपुरभैरवी का प्रयोग करे |
७ : सप्तम महाविद्या धूमावती : धूमावती [ लक्ष्मी ] की साधना से पुत्र लाभ धन लाभ और शत्रु पर विजय प्राप्ति के लिए अत्यंत लाभ दायक है |
८ : अष्टम महाविद्या बंगलामुखी : इस अनुष्ठान को सावधानी पूर्वक करना चाहिए,नहीं तो विपरीत प्रभाव पड़ सकता है | इस मन्त्र के प्रभाव से [ जप कराने से ] शत्रुओ पर विजय एवं मुकदमो में विजय प्राप्ति तथा विशेष आर्थिक उन्नति के लाभ है |
९ : नवम महाविद्या मातंगी : मातंगी [ सुमुखी उच्चिस्थ चंडालिक ] इसके अनुष्ठान से जीवन में पूर्णता और विवाह के लिए प्रयोग किया जाता है, मनोकामनापूर्ति के लिए इस मन्त्र का प्रयोग करे |
१० : दशम महाविद्या कमला : कमला [ लक्ष्मी नारायणी ] इस मन्त्र के अनुष्ठान से आर्थिक भौतिक क्षेत्र में उच्चतम स्थिति करने के लिए दरिद्रता दूर करने के लिए व्यापर उन्नति तथा लक्ष्मी प्राप्ति के लिए इस मन्त्र का प्रयोग करे |
[ महाविद्या प्रयोग ] 
१ : महाविद्या प्रयोग उस समय किया जाता है जब घर में किसी प्रकार की अशांति हो या बाधा [ भूत प्रेत आदि ] उत्पन्न होती हो जिसके करने परिवार में अशांति हो रही हो तो इस प्रयोग के २१ पाठ कराने अथवा १०८ पाठ कराने व् हवन कराने से तत्काल लाभ प्राप्त होता है | यह प्रयोग अनुभव सिद्ध है | 
[ प्रत्यंगिरा व् विपरीत प्रत्यंगिरा स्त्रोत्र ] 
श्री प्रत्यंगिरा स्त्रोत्र : प्रत्यंगिरा के शास्त्रीय अनुष्ठान मात्र से समस्त शत्रु नष्ट हो जाते है | इसमें साधक को किसी प्रकार की कोई हानी नहीं होता है | इसके कम से कम १०८ पाठ कराने से लाभ शुरु हो जाता है | मुक़दमे में विजय तथा प्रबल शत्रु क्यों न हो ,उसकी पराजय अवश्य होती है 
श्री विपरीत प्रत्यंगिरा स्त्रोत्र : विपरीत प्रत्यंगिरा स्त्रोत्र के पाठ करने मात्र से शत्रु का विशेष क्षय यहाँ तक की वह मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है , तथा इस पाठ के साथ - साथ साधक की सुरक्षा भी होती है | इस का कम से कम १०८ पाठ या संभव हो तो ११०० पाठ करवाहोता हैवे तो सफलता अवश्य प्राप्त होता है

श्राद्ध प्रकरण

१ : गया श्राद्ध : गया श्राद्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से पितरो को मृत्यु लोक से देव लोक का स्थान मिलता है अपने पितर चाहे मृत्यु से मरे हो या अकाल मृत्यु से सब का उद्धार [ कल्याण ] हो जाता है | यह कार्यक्रम खरमाश या पूष मास में किया जाता है | जाने के पहले पितरो को निमंत्रण दिया जाता है | तब गया का कार्यक्रम किया जाता है | 

२ : पार्वण श्राद्ध : पार्वण श्राद्ध गया जाते समय ही किया जाता है तथा सभी पितर गणों को अभी मंत्रित करके उसी दिन गया ले जाते है | वैसे इसे महालय श्राद्ध कहा जाता है | इसे पितृ पक्ष के अंतिम दिन सभी पितरो के निमित्त किया जाता है | 

३ : त्रिपिंडी श्राद्ध : त्रिपिंडी श्राद्ध गया का विकल्प कहते है | इसे ही पितृ शांति कहते है | इस कार्य के करने से घर में शांति होती है तथा पितृ प्रसन्न होते है | 

४ : नारायण बलि श्राद्ध : जब किसी प्राणी की अकाल मृत्यु [ जलने ,कटने ,फाशी ,जहर खाने ,सर्प काटने, ट्रेन से कटकर आदि ] होती है | तो उसकी सद्गति [ कल्याण ] के लिए मृत्यु से इग्यराहावे [ ११ ] दिन इस श्राद्ध का प्रयोग किया जाता है | 

५ : वार्षिक श्राद्ध : प्राणी के मृत्यु के एक वर्ष बाद इस श्राद्ध को किया जाता है | लेकिन आज कल मृत्यु के अठारहवे दिन ही इस श्राद्ध को संपन्न कर दिया जाता है | 

६ : नांदी श्राद्ध : कभी भी हम शुभ काम या पूजन करते है तो देवताओ के साथ पितरो का आवाहन किया जाता है व् उनका श्राद्ध किया जाता है | जिसे हम नांदी श्राद्ध कहते है | 

७ : पंचक शांति : जब प्राणी की मृत्यु पंचक [ धनिष्ठा , शतभिषा , पूर्व भाद्रपद , उत्तर भाद्रपद ,रेवती ] नक्षत्र में हो जाय तो उशकी शांति शव [मिटटी] जलाते समय या ११वे दिन इसकी शांति की जाती है | 

८ : वृखोत्सर्ग प्रयोग : वृखोत्सर्ग प्रयोग मृतक व्यक्ति के स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करता है | यह प्रयोग सभी प्रयोगों में वृहद् है | यह प्रयोग भी ११वे दिन किया जाता है | ल्याण होगा ]

श्राद्ध प्रकरण

१ : गया श्राद्ध : गया श्राद्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से पितरो को मृत्यु लोक से देव लोक का स्थान मिलता है अपने पितर चाहे मृत्यु से मरे हो या अकाल मृत्यु से सब का उद्धार [ कल्याण ] हो जाता है | यह कार्यक्रम खरमाश या पूष मास में किया जाता है | जाने के पहले पितरो को निमंत्रण दिया जाता है | तब गया का कार्यक्रम किया जाता है | 

२ : पार्वण श्राद्ध : पार्वण श्राद्ध गया जाते समय ही किया जाता है तथा सभी पितर गणों को अभी मंत्रित करके उसी दिन गया ले जाते है | वैसे इसे महालय श्राद्ध कहा जाता है | इसे पितृ पक्ष के अंतिम दिन सभी पितरो के निमित्त किया जाता है | 

३ : त्रिपिंडी श्राद्ध : त्रिपिंडी श्राद्ध गया का विकल्प कहते है | इसे ही पितृ शांति कहते है | इस कार्य के करने से घर में शांति होती है तथा पितृ प्रसन्न होते है | 

४ : नारायण बलि श्राद्ध : जब किसी प्राणी की अकाल मृत्यु [ जलने ,कटने ,फाशी ,जहर खाने ,सर्प काटने, ट्रेन से कटकर आदि ] होती है | तो उसकी सद्गति [ कल्याण ] के लिए मृत्यु से इग्यराहावे [ ११ ] दिन इस श्राद्ध का प्रयोग किया जाता है | 

५ : वार्षिक श्राद्ध : प्राणी के मृत्यु के एक वर्ष बाद इस श्राद्ध को किया जाता है | लेकिन आज कल मृत्यु के अठारहवे दिन ही इस श्राद्ध को संपन्न कर दिया जाता है | 

६ : नांदी श्राद्ध : कभी भी हम शुभ काम या पूजन करते है तो देवताओ के साथ पितरो का आवाहन किया जाता है व् उनका श्राद्ध किया जाता है | जिसे हम नांदी श्राद्ध कहते है | 

७ : पंचक शांति : जब प्राणी की मृत्यु पंचक [ धनिष्ठा , शतभिषा , पूर्व भाद्रपद , उत्तर भाद्रपद ,रेवती ] नक्षत्र में हो जाय तो उशकी शांति शव [मिटटी] जलाते समय या ११वे दिन इसकी शांति की जाती है | 

८ : वृखोत्सर्ग प्रयोग : वृखोत्सर्ग प्रयोग मृतक व्यक्ति के स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करता है | यह प्रयोग सभी प्रयोगों में वृहद् है | यह प्रयोग भी ११वे दिन किया जाता है | ल्याण होगा ]

श्राध

आज से श्राध पक्ष सुरु हो ग्या है | जिसमे हम लोग अपने पितरो को श्राध अर्पण व तर्पण करते है, इन दिनो पितर देवलोक से मरत्यू लोक मे आते है और अपने वंशजो द्वारा दिया भावपूर्ण भोजन गरहन करते है |मेरी और से उन सभी दिव्यात्माओ को नमन |

हिन्दू धर्म में मान्यता है कि शरीर नष्ट हो जाने के बाद भी आत्मा अजर-अमर रहती है। वह अपने कार्यों के भोग भोगने के लिए नाना प्रकार की योनियों में विचरण करती है। शास्त्रों में मृत्योपरांत मनुष्य की अवस्था भेद से उसके कल्याण के लिए समय-समय पर किए जाने वाले कृत्यों का निरूपण हुआ है। 

सामान्यत: जीवन में पाप और पुण्य दोनों होते हैं। हिन्दू मान्यता के अनुसार पुण्य का फल स्वर्ग और पाप का फल नर्क होता है। नर्क में जीवात्मा को बहुत यातनाएं भोगनी पड़ती हैं। पुण्यात्मा मनुष्य योनि तथा देवयोनि को प्राप्त करती है। इन योनियों के बीच एक योनि और होती है वह है प्रेत योनि। वायु रूप में यह जीवात्मा मनुष्य का मन:शरीर है, जो अपने मोह या द्वेष के कारण इस पृथ्‍वी पर रहता है। पितृ योनि प्रेत योनि से ऊपर है तथा पितृलोक में रहती है। 

भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिनों तक का समय सोलह श्राद्ध या श्राद्ध पक्ष कहलाता है। शास्त्रों में देवकार्यों से पूर्व पितृ कार्य करने का निर्देश दिया गया है। श्राद्ध से केवल पितृ ही तृप्त नहीं होते अपितु समस्त देवों से लेकर वनस्पतियां तक तृप्त होती हैं।

श्राद्ध करने वाले का सांसारिक जीवन सुखमय बनता है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसी मान्यता है कि श्राद्ध न करने से पितृ क्षुधा से त्रस्त होकर अपने सगे-संबंधियों को कष्ट और शाप देते हैं। अपने कर्मों के अनुसार जीव अलग-अलग योनियों में भोग भोगते हैं, जहां मंत्रों द्वारा संकल्पित हव्य-कव्य को पितर प्राप्त कर लेते हैं। 
श्राद्ध की साधारणत: दो प्रक्रियाएं हैं- एक पिंडदान और दूसरी ब्राह्मण भोजन। ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को तथा पितर कव्य को खाते हैं। पितर स्मरण मात्र से ही श्राद्ध प्रदेश में आते हैं तथा भोजनादि प्राप्त कर तृप्त होते हैं। एकाधिक पुत्र हों और वे अलग-अलग रहते हो तो उन सभी को श्राद्ध करना चाहिए। ब्राह्मण भोजन के साथ पंचबलि कर्म भी होता है, जिसका विशेष महत्व है।
शास्त्रों में पांच तरह की बलि बताई गई हैं, जिसका श्राद्ध में विशेष महत्व है।
1. गौ बलि
2. श्वान बलि
3. काक बलि
4. देवादि बलि 
5. पिपीलिका बलि


यहां बल‍ि से तात्पर्य किसी पशु या पक्षी की हत्या से नहीं है, बल्कि श्राद्ध के दिन जो भोजन बनाया जाता है। उसमें से इनको भी खिलाना चाहिए। इसे ही बलि कहा जाता है। 
यूं तो एक आम मान्यता है कि जिस भी तिथि को किसी महिला या पुरुष का निधन हुआ हो उसी तिथि को संबंधित व्यक्ति का श्राद्ध किया जाता है, लेकिन आपकी जानकारी के लिए हम कुछ खास बातें यहां बता रहे हैं...

* सौभाग्यवती स्त्री का श्राद्ध नवमी के दिन किया जाता है।

* यदि कोई व्यक्ति संन्यासी है तो उसका श्राद्ध द्वादशी के दिन किया जाता है।

* शस्त्राघात या किसी अन्य दुर्घटना में मारे गए व्यक्ति का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।

* यदि हमें अपने किसी पूर्वज के निधन की तिथि नहीं मालूम हो तो उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है। इसीलिए इसे सर्वपितृ अमावस्या भी कहा जाता है।

* आश्विन शुक्ल की प्रतिपदा को भी श्राद्ध करने का विधान है। इस दिन दादी और नानी का श्राद्ध किया जाता है। 
* श्राद्ध के दौरान यह सात चीजें वर्जित मानी गई- दंतधावन, ताम्बूल भक्षण, तेल मर्दन, उपवास, संभोग, औषध पान और परान्न भक्षण।

* श्राद्ध में स्टील के पात्रों का निषेध है। 

* श्राद्ध में रंगीन पुष्प को भी निषेध माना गया है।

* गंदा और बासा अन्न, चना, मसूर, गाजर, लौकी, कुम्हड़ा, बैंगन, हींग, शलजम, मांस, लहसुन, प्याज, काला नमक, जीरा आदि भी श्राद्ध में निषिद्ध माने गए हैं।
 * संकल्प लेकर ब्राह्मण भोजन कराएं या सीधा इत्यादि दें। ब्राह्मण को दक्षिणा अवश्य दें।

* भोजन कैसा है, यह न पूछें।

* ब्राह्मण को भी भोजन की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए।

* सीधा पूरे परिवार के हिसाब से दें।

इस प्रकार आप पितरों को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद लेकर अपने कष्ट दूर कर सकते हैं। यूं भी यह व्यक्ति का कर्तव्य है, जिसे पूर्ण कर पूरे परिवार को सुखी एवं ऐश्वर्यवान बना सकते हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि श्राद्ध करते समय संकल्प अवश्य लें

Sunday 1 September 2013

चरित्र नारी का ही क्यों ?


चरित्र जैसे शब्द का सबसे गहरा सम्बन्ध सिर्फ नारी क्यों माना जाता है ? हर आँख उठती है उसी की ओर क्यों ? शक सबसे अधिक उसी के चरित्र पर पर किया जाता है. वह भी उससे कुछ भी पूछे बिना। वैसे तो सदियों से ये परंपरा चली आ रही है कि नारी सीता की तरह अग्निपरीक्षा देने के लिए बाध्य होती है। 
ऐसे कई मामले .......... , जिसमें सिर्फ संदेह की बिला पर औरतों को मार दिया जाता है क्योंकि उनके पति , पिता या भाई को उनके चरित्र पर संदेह हो जाता है या उनका कहीं प्रेम प्रसंग होता है जो उनके घर वालों को पसंद नहीं होता है और फिर दोनों को या फिर किसी एक को मौत घाट उतार दिया जाता है। इसका उन्हें पूरा हक होता है जैसे बेटी , बहन या पत्नी कोई जीते जागते इंसान न होकर उनकी जागीर हों , जिसे सांस लेने से लेकर बोलने , देखने और सोचने तक का अधिकार नहीं है। जरा सा कोई काम उनकी सोच या दायरे से बाहर हुआ नहीं कि--
--- उनके मुंह पर कालिख पुत जाती है
---वे समाज में मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहते हैं।
---उनके खानदान के नाम पर बट्टा लगने लगता है.
---वे अपने पुरुष होने पर लानत मलानत भेजने लगते हैं।
वही लोग जो आज नारिओं के प्रगति की ओर बढ़ते कदम की दुहाई देते हैं और उसके बाद भी उन्हें अपना चरित्र प्रमाण-पत्र साथ लेकर चलना होता है क्योंकि ये एक ऐसा आक्षेप है जिसमें शिक्षा , पद , रुतबा या उपलब्धियां कोई भी ढाल नहीं बनता है। आप आगे बढ़ें लेकिन इस समाज के मन से। आपने आपातकाल में किसी से लिफ्ट ले ली , सहायता ली नहीं की संदेह के घेरे में कैद। इसमें साथ में कौन है , किस उम्र का है ? उससे क्या रिश्ता है ? ये भी कोई मतलब नहीं रखता है।
अगर इसे हम पुरुष के मामले में देखें तो खुले आम एक पुरुष दो महिलाओं को पत्नी के तरह से रख कर रहता है। अभी हाल ही मैं ओम पुरी के मामले में पढ़ा कि उसकी पत्नी ने घरेलु हिंसा का मामला कोर्ट में दाखिल किया। ओम पुरी की दो पत्नियाँ है और वह दोनों के पास रहते है। यहाँ चरित्र का प्रमाण पत्र कैसे दिया जा सकता है ? एक वही क्यों ? कितने लोग एक पत्नी के रहते हुए दूसरी को पत्नी बना कर रह रहे होते हैं, लेकिन उनके चरित्र पर कोई उंगली नहीं उठा सकता क्योंकि वे समाज के सर्वेसर्वा जो है।
एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों और नामी गिरामी लोग तक एक पत्नी के रहते हुए ( बिना तलाक और अपने ही किसी घर में रखते हुए ) दूसरी पत्नी को भी रखते हैं लेकिन उनकी कोई बोल नहीं सकता है बल्कि पत्नी भी अपने भाग्य का दोष मानते हुए अपनी नियति मान कर इसको स्वीकार कर लेती है। अगर कोई औरत ऐसा करे तो क्या ये समाज और पुरुष समाज उसको जीने देगा ? शायद नहीं ( अपवाद इसके भी हो सकते हैं लेकिन ये पुरुषों की तरह से खुले तौर पर स्वीकार होता है। पुरुष ही क्यों इसे कोई स्त्री भी स्वीकार नहीं करती है। क्योंकि ये चरित्र सिर्फ नारी के साथ जुड़ा प्रश्न सदैव रहा है और रहेगा।

Wednesday 5 June 2013

अपने पिता को विस्मृत न करें-डूकिया

अंतर्राष्ट्रीय पिता दिवस पर विशेष
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(21 जून - पिता दिवस )------------------------- 


माता-पिता का किसी भी व्यक्ति के जीवन में क्या महत्व है ये बताने की आवश्यकता नहीं है।जहाँ माँ कोख में बच्चे को अपने खून से सींचती है तो वही पिता उसे परिपक्व होने तक अपने पसीने से पालता है। एक तरफ माँ बच्चे के पालन- पोषण ढेर सारा त्याग और तपस्या के साथ करती है, तो दूसरी तरफ पिता एक मजबूत आधार की तरह हर समय सहारा देता है। इसीलिए यदि किसी परिवार में दुर्घटनावश यदि पिता की असमय म्रत्यु हो जाती है तो परिवार बिखर जाता है और बच्चे शिक्षा, सहारा, सलाह, प्रोत्साहन के आभाव में आगे नहीं बढ़ पाते। 


हर पिता अपने बच्चो को अपने से ज्यादा सफल देखना चाहता है जिसके वह कठिन परिश्रम करता है।अपने शौकों पर नियंत्रण करता है। जरुरत पड़ने पर कर्ज भी लेता है। खुद छोटे से घर में रहके, साइकिल चलाके अपने बच्चो के लिए बड़े घर और गाड़ी का सपना देखता है। और उस सपने को पूरा करने के लिए अपनी पूरी जिंदगी को संघर्ष में निकल देता है। पिता वो शाख है जो अपने बच्चे की हर मुश्किल में उसका साया बन जाता है। जिस समय उसे एक कदम भी चलना भी नहीं आता उसे उँगली पकड़ के चलना सिखाता है परन्तु आजकल के बच्चे अपना फर्ज भूल गए है 

इसीलिए शहर के नक़्शे में वृद्धाश्रम दिखने लगे है। जहाँ पिता अकेले पाँच बच्चो को पाल लेता है उन्हें जीवन के सारे सुख आराम देता है वही पाँच बच्चे मिलकर एक पिता को नहीं पाल पाते। कमाने की भागदौड़ में हम 
मॉल में लगी सेल देखने का, किटी पार्टी का, समारोह में जाने का समय तो निकल लेते हैं! लेकिन बूढ़े पिता के जोड़ों के दर्द का हाल पूछने का समय नहीं निकल पाते। यहाँ तक कि हमें उनकी दवा का खर्च भी अखरने लगता है। हम उस समय ये भूल जाते है की ये वही बरगद का पेड़ है जिसकी छाया में पलके हम बड़े हुए है। यदि उन्होंने भी उस समय अपनी ऐशोआराम में समय बिताया होता तो शायद हम इस ऊंचाई पर नहीं पहुच पाते। 

आइये अपने पिता को सम्मान दे। हमारे जीवन में उनके योगदान को याद करें। और यदि वो अभाग्यवश हमारें साथ नहीं है तो अपने बच्चो के साथ उनके योगदान की चर्चा करें। 

Friday 31 May 2013

कांकड़ !

कांकड़ यानी गांव की सीमा. गांव की बाहरी सीमा कांकड़ कहलाती है. कांकड़ पर गांव की सीमा समाप्‍त हो जाती है और ठीक वहीं से दूसरे गांव की रोही शुरू हो जाती है. हर गांव की एक सीमा होती है जहां से उसके क्षेत्र की शुरुआत मानी जाती है इसी सीमा या लाइन को कांकड़ कहते हैं. थार के गांवों में इस सीमा का बहुत महत्‍व रहा है. अनेक रिवाज कांकड़ से जुड़े हैं. तो यही है कांकड़ और ग्रामीण भारत विशेषकर थार में उसका महत्‍व. हर गांव की कांकड़ अपने में अनेक विशेषताएं समेटे होती है. यही कारण है कि प्रत्‍येक गांव की कोई विशेषता होती है, एक पहचान होती है. उनके रीति रिवाज, संस्‍कृति, गुवाड़ें सब कुछ न कुछ अलग होती हैं. विविधिता होती है. गांव की मजबूत भींते और उनके गिरते लेवड़े अनेक कहानियां कहते हैं. इतिहास के सबसे बड़े मूक साक्षी हैं हमारे गांव.गोदरास को जानना है तो शुरुआत कांकड़ या शुरुआत से ही करनी होगी.

Wednesday 15 May 2013

अक्षय तृतीया




अक्षय तृतीया वैशाख शुक्ल तृतीया को कहा जाता हैं। वैदिक कलैण्डर के चार सर्वाधिक शुभ दिनों में से यह एक मानी गई है। 'अक्षय' से तात्पर्य है 'जिसका कभी क्षय न हो' अर्थात जो कभी नष्ट नहीं होता। भारत के उत्तर प्रदेश ज़िले के वृन्दावन में ठाकुर जी के चरण दर्शन इसी दिन होते हैं। अक्षय तृतीया को सामान्यतया 'अखतीज' या 'अक्खा तीज' के नाम से भी पुकारा जाता है। वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि अक्षय तृतीया के नाम से लोक विख्यात है। अक्षय तृतीया को भगवान विष्णु ने परशुराम अवतार लिया था। अत: इस दिन व्रत करने और उत्सव मनाने की प्रथा है।ग्रीष्म ऋतु का पदार्पण, हरियाली फ़सल को पका कर, लोगों में खुशी का संचार कर, विभिन्न व्रत, पर्वों के साथ होता है। भारत भूमि व्रत व पर्वों के मोहक हार से सजी हुई मानव मूल्यों व धर्म रक्षा की गौरव गाथा गाती है। धर्म व मानव मूल्यों की रक्षा हेतु श्रीहरि विष्णु देशकाल के अनुसार अनेक रूपों को धारण करते हैं, जिसमें भगवान परशुराम, नर नारायण के तीन पवित्र व शुभ अवतार अक्षय तृतीया को उदय हुए थे। मानव कल्याण की इच्छा से धर्म शास्त्रों में पुण्य शुभ पर्व की कथाओं की आवृत्ति हुई है, जिसमें अक्षय तृतीया का व्रत भी प्रमुख है, जो कि अपने आप में स्वयंसिद्ध है।
धार्मिक महत्त्व

पुराणों में उल्लेख मिलता है कि इसी दिन से त्रेता युग का आरंभ हुआ था। नर नारायण ने भी इसी दिन अवतार लिया था। भगवान परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ। प्रसिद्ध तीर्थस्थल बद्रीनारायण के कपाट भी इसी तिथि से ही पुनः खुलते हैं। वृन्दावन स्थित श्री बांके बिहारी जी के मन्दिर में भी केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं। अक्षय तृतीया को व्रत रखने और अधिकाधिक दान देने का बड़ा ही महात्म्य है। अक्षय तृतीया में सतयुग, किंतु कल्पभेद से त्रेतायुग की शुरुआत होने से इसे युगादि तिथि भी कहा जाता है। वैशाख मास में भगवान भास्कर की तेज धूप तथा लहलहाती गर्मी से प्रत्येक जीवधारी क्षुधा पिपासा से व्याकुल हो उठता है। इसलिए इस तिथि में शीतल जल, कलश, चावल, चना, दूध, दही आदि खाद्य व पेय पदार्थों सहित वस्त्राभूषणों का दान अक्षय व अमिट पुण्यकारी माना गया है। सुख शांति की कामना से व सौभाग्य तथा समृद्धि हेतु इस दिन शिव-पार्वती और नर नारायण की पूजा का विधान है। इस दिन श्रद्धा विश्वास के साथ व्रत रखकर जो प्राणी गंगा-जमुनादि तीर्थों में स्नान कर अपनी शक्तिनुसार देव स्थल व घर में ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ, होम, देव-पितृ तर्पण, जप, दानादि शुभ कर्म करते हैं, उन्हें उन्नत व अक्षय फल की प्राप्ति होती है।



बांके बिहारी जी मन्दिर, वृन्दावन
सुख व समृद्धि वर्धक

तृतीया तिथि माँ गौरी की तिथि है, जो बल-बुद्धि वर्धक मानी गई हैं। अत: सुखद गृहस्थ की कामना से जो भी विवाहित स्त्री-पुरुष इस दिन माँ गौरी व सम्पूर्ण शिव परिवार की पूजा करते हैं, उनके सौभाग्य में वृद्धि होती है। यदि अविवाहित स्त्री-पुरुष इस दिन श्रद्धा विश्वास से माँ गौरी सहित अनंत प्रभु शिव को परिवार सहित शास्त्रीय विधि से पूजते हैं तो उन्हें सफल व सुखद वैवाहिक सूत्र में अविलम्ब व निर्बाध रूप से जुड़ने का पवित्र अवसर अति शीघ्र मिलता है। वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन अक्षय तृतीया में पूजा, जप-तप, दान स्नानादि शुभ कार्यों का विशेष महत्व तथा फल रहता है। इस तिथि का जहाँ धार्मिक महत्व है, वहीं यह तिथि व्यापारिक रौनक बढ़ाने वाली भी मानी गई है। इस दिन स्वर्णादि आभूषणों की ख़रीद-फरोख्त को बहुत ही शुभ माना जाता है। जिससे आभूषण निर्माता व विक्रेता अपने प्रतिष्ठानों को बड़े ही सुन्दर ढंग से सजाते हैं और कई तरह से ग्राहकों को लुभाने व आकर्षित करने का प्रयास करते हैं। कई बड़े प्रतिष्ठानों में तो विक्रय लक्ष्य भी तय किए जाते हैं। इसमें इच्छित आभूषणों की ख़रीद व शुभ कार्य सम्पन्न करने से मानव जीवन सुख व धान्य से परिपूर्ण हो जाता है। श्रद्धालु भक्त प्रभु की अर्चना वंदना करते हुए विविध नैवेद्य अर्पित करते हैं। अक्षय तृतीया सुख-शांति व सौभाग्य में निरंतर वृद्धि करने वाली है।
सौभाग्य का प्रतीक

'अक्षय तृतीया' के दिन ख़रीदे गये वेशक़ीमती आभूषण एवं सामान शाश्वत समृद्धि के प्रतीक हैं। इस दिन ख़रीदा व धारण किया गया सोना अखण्ड सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। इस दिन शुरू किये गए किसी भी नये काम या किसी भी काम में लगायी गई पूँजी में सदा सफलता मिलती है और वह फलता-फूलता है। यह माना जाता है कि इस दिन ख़रीदा गया सोना कभी समाप्त नहीं होता, क्योंकि भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी स्वयं उसकी रक्षा करते हैं।

* इस दिन समुद्र या गंगा स्नान करना चाहिए।
* प्रातः पंखा, चावल, नमक, घी, शक्कर, साग, इमली, फल तथा वस्त्र का दान करके ब्राह्मणों को दक्षिणा भी देनी चाहिए।
* ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए।
* इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए।
* आज के दिन नवीन वस्त्र, शस्त्र, आभूषणादि बनवाना या धारण करना चाहिए।
* नवीन स्थान, संस्था, समाज आदि की स्थापना या उद्घाटन भी आज ही करना चाहिए।

व्रत कथा : प्राचीनकाल में सदाचारी तथा देव-ब्राह्मणों में श्रद्धा रखने वाला धर्मदास नामक एक वैश्य था। उसका परिवार बहुत बड़ा था। इसलिए वह सदैव व्याकुल रहता था। उसने किसी से इस व्रत के माहात्म्य को सुना। कालांतर में जब यह पर्व आया तो उसने गंगा स्नान किया।

विधिपूर्वक देवी-देवताओं की पूजा की। गोले के लड्डू, पंखा, जल से भरे घड़े, जौ, गेहूँ, नमक, सत्तू, दही, चावल, गुड़, सोना तथा वस्त्र आदि दिव्य वस्तुएँ ब्राह्मणों को दान कीं। स्त्री के बार-बार मना करने, कुटुम्बजनों से चिंतित रहने तथा बुढ़ापे के कारण अनेक रोगों से पीड़ित होने पर भी वह अपने धर्म-कर्म और दान-पुण्य से विमुख न हुआ। यही वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती का राजा बना।

अक्षय तृतीया के दान के प्रभाव से ही वह बहुत धनी तथा प्रतापी बना। वैभव संपन्न होने पर भी उसकी बुद्धि कभी धर्म से विचलित नहीं हुई।

अक्षय तृतीया अभिजीत मुहुर्त |
धर्म शास्त्रों में इस पुण्य शुभ पर्व की कथाओं के बारे में बहुत कुछ विस्तार पूर्वक कहा गया है. इनके अनुसार यह दिन सौभाग्य और संपन्नता का सूचक होता है. दशहरा, धनतेरस, देवउठान एकादशी की तरह  अक्षय तृतीया  को अभिजीत, अबूझ मुहुर्त या सर्वसिद्धि मुहूर्त भी कहा जाता है. क्योंकि इस दिन किसी भी शुभ कार्य करने हेतु पंचांग देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती. अर्थात इस दिन किसी भी शुभ काम को करने के लिए आपको मुहूर्त निकलवाने की आवश्यकता  नहीं होती. अक्षय अर्थात कभी कम ना होना वाला इसलिए मान्यता अनुसार इस दिन किए गए कार्यों में शुभता प्राप्त होती है. भविष्य में उसके शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं.

पूरे भारत वर्ष में अक्षय तृतीया की खासी धूम रहती है. हए कोई इस शुभ मुहुर्त के इंतजार में रहता है ताकी इस समय किया गया कार्य उसके लिए अच्छे फल लेकर आए. मान्यता है कि इस दिन होने वाले काम का कभी क्षय नहीं होता अर्थात इस दिन किया जाने वाला कार्य कभी अशुभ फल देने वाला नहीं होता. इसलिए किसी भी नए कार्य की शुरुआत से लेकर महत्वपूर्ण चीजों की खरीदारी व विवाह जैसे कार्य भी इस दिन बेहिचक किए जाते हैं.

नया वाहन लेना या गृह प्रेवेश करना, आभूषण खरीदना इत्यादि जैसे कार्यों के लिए तो लोग इस तिथि का विशेष उपयोग करते हैं. मान्यता है कि यह दिन सभी का जीवन में अच्छे भाग्य और सफलता को लाता है. इसलिए लोग जमीन जायदाद संबंधी कार्य, शेयर मार्केट में निवेश रीयल एस्टेट के सौदे या कोई नया बिजनेस शुरू करने जैसे काम भी लोग इसी दिन करने की चाह रखते हैं.

सुखदेव थापर


सुखदेव (जन्म- 15 मई, 1907, पंजाब; शहादत- 23 मार्च, 1931, सेंट्रल जेल, लाहौर) को भारत के उन प्रसिद्ध क्रांतिकारियों और शहीदों में गिना जाता है, जिन्होंने अल्पायु में ही देश के लिए शहादत दी। सुखदेव का पूरा नाम 'सुखदेव थापर' था। देश के और दो अन्य क्रांतिकारियों- भगत सिंह और राजगुरु के साथ उनका नाम जोड़ा जाता है। ये तीनों ही देशभक्त क्रांतिकारी आपस में अच्छे मित्र और देश की आजादी के लिए अपना सर्वत्र न्यौछावर कर देने वालों में से थे। 23 मार्च, 1931 को भारत के इन तीनों वीर नौजवानों को एक साथ फ़ाँसी दी गई।

जन्म तथा परिवार

सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को गोपरा, लुधियाना, पंजाब में हुआ था। उनके पिता का नाम रामलाल थापर था, जो अपने व्यवसाय के कारण लायलपुर (वर्तमान फैसलाबाद, पाकिस्तान) में रहते थे। इनकी माता रल्ला देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। दुर्भाग्य से जब सुखदेव तीन वर्ष के थे, तभी इनके पिताजी का देहांत हो गया। इनका लालन-पालन इनके ताऊ लाला अचिन्त राम ने किया। वे आर्य समाज से प्रभावित थे तथा समाज सेवा व देशभक्तिपूर्ण कार्यों में अग्रसर रहते थे। इसका प्रभाव बालक सुखदेव पर भी पड़ा। जब बच्चे गली-मोहल्ले में शाम को खेलते तो सुखदेव अस्पृश्य कहे जाने वाले बच्चों को शिक्षा प्रदान करते थे।

भगत सिंह से मित्रता
सन 1919 में हुए जलियाँवाला बाग़ के भीषण नरसंहार के कारण देश में भय तथा उत्तेजना का वातावरण बन गया था। इस समय सुखदेव 12 वर्ष के थे। पंजाब के प्रमुख नगरों में मार्शल लॉ लगा दिया गया था। स्कूलों तथा कालेजों में तैनात ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय छात्रों को 'सैल्यूट' करना पड़ता था। लेकिन सुखदेव ने दृढ़तापूर्वक ऐसा करने से मना कर दिया, जिस कारण उन्हें मार भी खानी पड़ी। लायलपुर के सनातन धर्म हाईस्कूल से मैट्रिक पास कर सुखदेव ने लाहौर के नेशनल कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ पर सुखदेव की भगत सिंह से भेंट हुई। दोनों एक ही राह के पथिक थे, अत: शीघ्र ही दोनों का परिचय गहरी दोस्ती में बदल गया। दोनों ही अत्यधिक कुशाग्र और देश की तत्कालीन समस्याओं पर विचार करने वाले थे। इन दोनों के इतिहास के प्राध्यापक 'जयचन्द्र विद्यालंकार' थे, जो कि इतिहास को बड़ी देशभक्तिपूर्ण भावना से पढ़ाते थे। विद्यालय के प्रबंधक भाई परमानन्द भी जाने-माने क्रांतिकारी थे। वे भी समय-समय पर विद्यालयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करते थे। यह विद्यालय देश के प्रमुख विद्वानों के एकत्रित होने का केन्द्र था तथा उनके भी यहाँ भाषण होते रहते थे।

क्रांतिकारी जीवन

वर्ष 1926 में लाहौर में 'नौजवान भारत सभा' का गठन हुआ। इसके मुख्य योजक सुखदेव, भगत सिंह, यशपाल, भगवती चरण व जयचन्द्र विद्यालंकार थे। 'असहयोग आन्दोलन' की विफलता के पश्चात 'नौजवान भारत सभा' ने देश के नवयुवकों का ध्यान आकृष्ट किया। प्रारम्भ में इनके कार्यक्रम नौतिक, साहित्यिक तथा सामाजिक विचारों पर विचार गोष्ठियाँ करना, स्वदेशी वस्तुओं, देश की एकता, सादा जीवन, शारीरिक व्यायाम तथा भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता पर विचार आदि करना था। इसके प्रत्येक सदस्य को शपथ लेनी होती थी कि वह देश के हितों को सर्वोपरि स्थान देगा। परन्तु कुछ मतभेदों के कारण इसकी अधिक गतिविधि न हो सकी। अप्रैल, 1928 में इसका पुनर्गठन हुआ तथा इसका नाम 'नौजवान भारत सभा' ही रखा गया तथा इसका केन्द्र अमृतसर बनाया गया।

केंन्द्रीय समिति का निर्माण
सितम्बर, 1928 में ही दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला के खण्डहर में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई। इसमें एक केंन्द्रीय समिति का निर्माण हुआ। संगठन का नाम 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' रखा गया। सुखदेव को पंजाब के संगठन का उत्तरदायित्व दिया गया। सुखदेव के परम मित्र शिव वर्मा, जो प्यार में उन्हें 'विलेजर' कहते थे, के अनुसार भगत सिंह दल के राजनीतिक नेता थे और सुखदेव संगठनकर्ता, वे एक-एक ईंट रखकर इमारत खड़ी करने वाले थे। वे प्रत्येक सहयोगी की छोटी से छोटी आवश्यकता का भी पूरा ध्यान रखते थे। इस दल में अन्य प्रमुख व्यक्त थे-

चन्द्रशेखर आज़ाद
राजगुरु
बटुकेश्वर दत्त
कुशल रणनीतिकार

'साइमन कमीशन' के भारत आने पर हर ओर उसका तीव्र विरोध हुआ। पंजाब में इसका नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे। 30 अक्तूबर को लाहौर में एक विशाल जुलूस का नेतृत्व करते समय वहाँ के डिप्टी सुपरिटेन्डेन्ट स्कार्ट के कहने पर सांडर्स ने लाठीचार्ज किया, जिसमें लालाजी घायल हो गए। पंजाब में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई। 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी का देहांत हो गया। उनके शोक में स्थान-स्थान पर सभाओं का आयोजन किया गया। सुखदेव और भगत सिंह ने एक शोक सभा में बदला लेने का निश्चय किया। एक महीने बाद ही स्कार्ट को मारने की योजना थी, परन्तु गलती से उसकी जगह सांडर्स मारा गया। इस सारी योजना के सूत्रधार सुखदेव ही थे। वस्तुत: सांडर्स की हत्या चितरंजन दास की विधवा बसन्ती देवी के कथन का सीधा उत्तर था, जिसमें उन्होंने कहा था, "क्या देश में कोई युवक नहीं रहा?" सांडर्स की हत्या के अगले ही दिन अंग्रेज़ी में एक पत्रक बांटा गया, जिसका भाव था "लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले किया गया।"

गिरफ्तारी

8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश सरकार के बहरे कानों में आवाज़ पहुँचाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर धमाका किया। स्वाभाविक रूप से चारों ओर गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ। लाहौर में एक बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई, जिसके फलस्वरूप 15 अप्रैल, 1929 को सुखदेव, किशोरी लाल तथा अन्य क्रांतिकारी भी पकड़े गए। सुखदेव चेहरे-मोहरे से जितने सरल लगते थे, उतने ही विचारों से दृढ़ व अनुशासित थे। उनका गांधी जी की अहिंसक नीति पर जरा भी भरोसा नहीं था। उन्होंने अपने ताऊजी को कई पत्र जेल से लिखे। इसके साथ ही महात्मा गांधी को जेल से लिखा उनका पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो न केवल देश की तत्कालीन स्थिति का विवेचन करता है, बल्कि कांग्रेस की मानसिकता को भी दर्शाता है। उस समय गांधी जी अहिंसा की दुहाई देकर क्रांतिकारी गतिविधियों की निंदा करते थे। इस पर कटाक्ष करते हुए सुखदेव ने लिखा, "मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षों में कोई अधिक महत्व नहीं होता और न ही हो सकता है।"

सच्चे राष्ट्रवादी


सुखदेव, भगतसिंह, राजगुरु
सुखदेव ने तत्कालीन परिस्थितियों पर गांधी जी एक पत्र में लिखा, 'आपने अपने समझौते के बाद अपना आन्दोलन (सविनय अवज्ञा आन्दोलन) वापस ले लिया है और फलस्वरूप आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ? 1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं। बावजूद इस बात के कि वे अपनी सजा पूरी कर चुके हैं। मार्शल लॉ के तहत बन्दी बनाए गए अनेक लोग अब तक जीवित दफनाए गए से पड़े हैं। बब्बर अकालियों का भी यही हाल है। देवगढ़, काकोरी, महुआ बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद है।..... एक दर्जन से अधिक बन्दी सचमुच फांसी के फंदों के इन्तजार में हैं। इन सबके बारे में क्या हुआ?" सुखदेव ने यह भी लिखा, भावुकता के आधार पर ऐसी अपीलें करना, जिनसे उनमें पस्त-हिम्मती फैले, नितांत अविवेकपूर्ण और क्रांति विरोधी काम है। यह तो क्रांतिकारियों को कुचलने में सीधे सरकार की सहायता करना होगा।' सुखदेव ने यह पत्र अपने कारावास के काल में लिखा। गांधी जी ने इस पत्र को उनके बलिदान के एक मास बाद 23 अप्रैल, 1931 को 'यंग इंडिया' में छापा।

शहादत

ब्रिटिश सरकार ने सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु पर मुकदमे का नाटक रचा। 23 मार्च, 1931 को उन्हें 'लाहौर सेंट्रल जेल' में फांसी दे दी गई। देशव्यापी रोष के भय से जेल के नियमों को तोड़कर शाम को साढ़े सात बजे इन तीनों क्रांतिकारियों को फाँसी पर लटकाया गया। भगत सिंह और सुखदेव दोनों एक ही सन में पैदा हुए और एक साथ ही शहीद हो गए।

भैरोंसिंह शेखावत

                                                                   भैरोंसिंह शेखावत
                                                             (23 अक्टूबर, 1923-15 मई, 2010)


भैरोंसिंह शेखावत (; जन्म- 23 अक्टूबर, 1923, सीकर, ब्रिटिश भारत; मृत्यु- 15 मई, 2010, जयपुर, राजस्थान) भारत के ग्यारहवें उपराष्ट्रपति और राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री थे। वे राजस्थान के राजनीतिक क्षितिज पर काफ़ी लम्बे समय तक छाये रहे। राजस्थान की राजनीति में उनका जबर्दस्त प्रभाव था। उनके कार्यकर्ताओं ने उन पर एक जोरदार नारा भी दिया, जो इस प्रकार था- "राजस्थान का एक ही सिंह, भेंरोसिंह....., भेंरोसिंह.....। यह नारा बहुत लम्बे समय तक गूँजता रहा था। राजस्थान में जब वर्ष 1952 में विधानसभा की स्थापना हुई थी, तब भैरोंसिंह शेखावत ने अपना भाग्य आजमाया और विधायक बने। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और सफलताएँ अर्जित करते हुए विपक्ष के नेता, फिर मुख्यमंत्री और उपराष्ट्रपति के पद तक पहुँच गए। 'भारतीय जनता पार्टी' के सम्माननीय नेताओं में से वे एक थे।
जन्म तथा परिवार

भैरोंसिंह शेखावत का जन्म 23 अक्टूबर, 1923 को धनतेरस के दिन ब्रिटिश कालीन सीकर (राजस्थान) में हुआ था। ये एक मध्यम वर्गीय राजपूत[1] परिवार से सम्बन्ध रखते थे। इनके पिता का नाम देवीसिंह और माता बन्ने कँवर थीं। शेखावत जी के पिता एक स्कूल में अध्यापक पद पर कार्यरत थे। भैरोंसिंह शेखावत के तीन भाई थे, जिनके नाम थे- विशन सिंह, गोवर्धन सिंह और लक्ष्मण सिंह
शिक्षा तथा विवाह
भैरोंसिंह शेखावत ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में ही प्राप्त की। उन्होंने हाईस्कूल की शिक्षा गाँव से 30 किलोमीटर दूर स्थित जोबनेर से प्राप्त की। यहाँ पढ़ने आने के लिए भैरोंसिंह शेखावत को प्रतिदिन पैदल जाना पड़ता था। हाईस्कूल करने के पश्चात उन्होंने जयपुर के 'महाराजा कॉलेज' में दाखिला ले लिया। उन्हें प्रवेश लिए अधिक समय नहीं हुआ था कि पिता का देहांत हो गया। अब शेखावत जी पर परिवार के आठ प्राणियों के भरण-पोषण का भार आ पड़ा। इस कारण उन्हें हल हाथ में उठाना पड़ा। बाद में पुलिस की नौकरी भी की, लेकिन उसमें मन नहीं रमा और त्यागपत्र देकर वापस खेती करने लगे। वर्ष 1941 में भैरोंसिंह शेखावत का विवाह सूरज कँवर से कर दिया गया। इनकी पुत्री का नाम रतन कँवर है।

राजनीति में प्रवेश

इस समय राजस्थान के गठन की प्रक्रिया चल रही थी। भैरोंसिंह शेखावत जनसंघ के संस्थापक काल से ही जुड़ गये और 'जनता पार्टी' तथा 'भाजपा' की स्थापना में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। वर्ष 1952 में वे दस रुपये उधार लेकर दाता रामगढ़ से चुनाव के लिए खड़े हुए। इस समय उनका चुनाव चिह्न 'दीपक' था। इस चुनाव में उन्हें सफलता मिली और वे विजयी हुए। इस सफलता के बाद उनका राजनीतिक सफर लगातार चलता रहा। वे दस वार विधायक, 1974 से 1977 तक राज्य सभा के सदस्य रहे।

राजनीतिक सफर

अपने लम्बे राजनीतिक सफर में भैरोंसिंह शेखावत तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री, तीन बार नेता प्रतिपक्ष और भारत के ग्यारहवें उपराष्ट्रपति भी रहे।

मुख्यमंत्री
22 जून, 1977 से 15 फ़रवरी, 1980 तक
4 मार्च, 1990 से 15 दिसम्बर, 1992 तक
15 दिसम्बर, 1992 से 31 दिसम्बर, 1998 तक
नेता प्रतिपक्ष
15 जुलाई, 1980 से 10 मार्च, 1985 तक
28 मार्च, 1985 से 30 दिसम्बर, 1989 तक
8 जनवरी, 1999 से 18 अगस्त, 2002 तक
उपराष्ट्रपति
भैरोंसिंह शेखावत जी 12 अगस्त, 2002 को भारत के ग्यारहवें उपराष्ट्रपति बने। उनका कार्यकाल 19 अगस्त, 2002 से 21 जुलाई, 2007 तक रहा था। वर्ष 2007 में वे राष्ट्रपति चुनाव में पराजित हो गए थे।

लोकप्रियता

शेखावत जी एक जन नेता थे। जनता के बीच उन्हें बहुत लोकप्रियता प्राप्त थी। उन्होंने राजस्थान के दस अलग-अलग स्थानों से विधान सभा चुनाव लड़े और उनमें से आठ में विजयश्री का वरण किया। वे एक से ग्यारह तक की राजस्थान विधान सभाओं में से मात्र पाँचवीं में नही थे। अर्थात दस विधान सभा चुनवों में वे जीत कर गये थे। आपात काल के समय भैरोंसिंह शेखावत ने उन्नीस माह तक जेल की सज़ा भी भोगी। विधायक दल के नेता तो वे कई बार रहे। 'भारतीय जनता पार्टी' में अनेकों पदों पर रहते हुए वे प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और किसान मोर्च के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने थे।

ग़रीबों के सहायक

आजीवन राष्ट्रहित में काम करने वाले जननेता शेखावत जी ग़रीबों के सच्चे सहायक थे। उन्होंने एक बार कहा था कि- "मैं गरीबों और वंचित तबके के लिए काम करता रहूँगा ताकि वे अपने मौलिक अधिकारों का गरिमापूर्ण तरीके से इस्तेमाल कर सकें।" देश के अत्यंत ग़रीब लोगों को भोजन मुहैया कराने के लिए चलाई जाने वाली "अंत्योदय अन्न योजना" का श्रेय उन्हीं को जाता है। उनके इस कदम के लिए तत्कालीन विश्व बैंक के अध्यक्ष रॉबर्ट मैक्कनमारा ने उनकी सराहना करते हुए उन्हें भारत का रॉकफ़ेलर कहा था। अपने जीवन काल की एक अन्य चर्चित घटना "रूप कंवर सती कांड" के दौरान अपनी लोकप्रियता और राजनीतिक कैरियर की परवाह न करते हुए भैरोंसिह शेखावत ने 'सती प्रथा' के विरोध में आवाज़ बुलंद की थी।

योजनाएँ
शेखावत जी का राजनीतिक कार्यकाल गरीबों की बेहतरी और विकास को समर्पित रहा था। ग़रीबों की भलाई के लिए उन्होंने कई योजनाएँ क्रियांवित की थीं, जैसे-

'काम के बदले अनाज योजना'
'अंत्योदय योजना'
'भामाशाह योजना'
'प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम'
अपनी योजनाओं के माध्यम से शेखावत जी ने ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने का जो सपना देखा था, वह आज काफ़ी हद तक साकार हो रहा है। राजनीति के इस माहिर खिलाड़ी ने सरकार में रहते हुए ऐसे ना जाने कितने काम किये, जिसका उदाहरण आज भी दिया जाता है। उनके द्वारा शुरू किये गये 'काम के बदले अनाज' योजना की मिसाल दी जाती है। बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या के नियंत्रण को लेकर भी उन्होंने अभिनव प्रयोग करते हुए अधिक संतानें होने पर पंचायतों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाया था।

निधन

राजस्थान की राजनीति में जोरदार प्रभाव रखने वाले भैरोंसिंह शेखावत का निधन 15 मई, 2010, जयपुर में हुआ। उन्हें बेचैनी और साँस लेने में तकलीफ की वजह से जयपुर के 'सवाई मानसिंह अस्पताल' में भर्ती करवाया गया था। यहाँ वे जीवन रक्षक प्रणाली पर रखे गए थे। शनिवार के दिन सुबह 11 बजकर, 10 मिनट पर डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था। उनका पार्थिव शरीर सबसे पहले भाजपा की प्रदेश इकाई के मुख्यालय में लाया गया था। पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन के लिए स़डकों पर हज़ारों लोग इकट्ठा थे। जयपुर की स़डकों पर "भैरोंसिंह अमर रहे" और "राजस्थान का एक ही सिंह, भैरोंसिंह.. भैरोंसिंह" की गूँज सुनाई दे रही थी।

आजीवन 'भाजपा' को समर्पित भैरोंसिंह शेखावत दलगत राजनीति से सदैव दूर रहे। ना केवल मुख्यमंत्री के रूप में बल्कि उपराष्ट्रपति पद पर रहते हुए भी उन्होंने सभी पार्टियों के लोगों से चाहे वे काँग्रेस के हों या साम्यवादी दल के, सभी के साथ समान व्यवहार किया। उनके जीवन का एक और तथ्य उल्लेखनीय है कि जब उपराष्ट्रपति का चुनाव लड़ा तो पहले 'भाजपा' की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। शेखावत जी ने पाँच वर्ष के कार्यकाल में अपने गरिमापूर्ण व्यवहार के कारण राज्य सभा में सभी पार्टियों से जो संबंध बनाये रखा, वह अपने आप में अनुकरणीय है।

मेरा गांव मेरा घर



गांव की बसावट
लेकिन शराब का प्रचलन गांव की सरहद में घुस आया है।  यह गांव तीन चौक का गांव कहा जाता है।
गांव की बसावट बहुत अच्छी है। गांव के खुल्लेपन को दर्शाती है। एवं किसी भी नव आगन्तुक को आकर्षित करती है।
यह एक समृद्ध गांव कहा जाता है। यहां शिक्षा अच्छी है। बालिकाओं की शिक्षा पर भी बराबर ध्यान दिया जाता है। आजिविका के हिसाब से प्राय हर घर में खेती के अलावा नौकरी व्यवसाय से आमद है।
युवा

रणबाकुरे

राजनिति

सेवा समिति
 गांव में होने वाले पारिवारिक एंव सामाजिक समारोह आदि के लिये बर्तनों एवं फर्नीचर आदि की सुविधा के लिये एक ग्राम सेवा समिति का संचालन किया जा रहा है। जिसके द्वारा होने वाले किसी भी आयोजन के लिये के लिये सामान निःशुल्क उपलब्ध करवाया जाता है। समिति के नियमित संचालन एवं आवश्यकतानुसार नया सामान जुटाने के लिये ब्याह - शादी में दिये जाने वाले ‘थामा’ की राशि गांव वालों द्वारा सेवा समिति में जमा करा दी जाती है। प्राप्त राशि का खर्च गांव वालों द्वारा आपसी सहमति से किया जाता है। एवं बकायदा लेखा जोखा भी रखा जाता है।
वार त्यौहार
 गांव में मकर संक्रंति,तीज,गोगानवमी,दीपावली,व होली के अलावा श्रद्धेह बाबा नथूराम की स्मृति में चोथ को खीर-चुरमा हर घर में बनाया जाता है। होलिका दहन गांव में एक ही जगह होती है। होलिका दहन के बाद धूलण्डी के दिन सुबह सुबह सभी गांव निवासी एक दुसरे के घर जाकर रामा श्यामा करते है। युवा लोग बुजुर्गो का आर्शीवाद लेते है। यह दृश्य आपसी सौहार्द की एक जिती जागती मिशाल है।

शादीयों के रिवाज





 आपको बता दूं कि मैं पिछले काफी दिनों से शादीयों में व्यस्त था इसलिए कुछ नया लिख नहीं पाया और और पढ भी नहीं पाया शादीयों में इसलिए कि अपना धंधा ही ऐसा हैं भाई पेट पुजा के लिए जाना पड़ता है।

चाक पूजन 

महिलाए इक्ट्ठा होकर खाली नये मटके लेकर कुम्हार (एक जाती जो मटके बनाने का कार्य करती है। ) के घर पर जाती हैं और वहा पर रखे चाक (जो मटके बनाने के काम आता है।) उसका पूजन मूंग, तेल,रोली, मोली और चावल, गुड चढ़ाकर उसका पूजन करती है।और फिर वहां एक घेरा बनाकर क्षेत्रिय गीतों पर नृत्य करती हैं हालाकि आजकल आधुनीकरण की होड में नई झलक देखने को मिल जाती है कि डी.जे के गानों पर नृत्य होने लगा है। इस रिवाज के बारे में पुछे जाने पर बुजुर्ग लोग सिर्फ यही बताते हैं कि "ये रिवाज पहले से ही चला आ रहा है। इसलिए हम भी यह निभाते है।"

(बर्तन) थाली खिसकाना और इक्ट्ठा करना
अर्थात गृह प्रवेश रश्म 

इसमें जब दुल्हा दुल्हन को लेकर घर में प्रवेश करता हैं तो लडत्रके की मां द्वारा पर अन्दर की तरफ 7 थालीयां रखती है। और दुल्हा उन थालियों को अपनी कटार से इधर उधर खिसकाता रहता है।  पिछे से दुल्हन उन थालियों को अक्ट्ठा करती रहती है। वो भी बिना टनटनाहट की आवाज के ऐसा माना जाता हैं कि अगर थाली इक्टठा करने में कोई आवाज हुई तो सास बहु की लडाई हो सकती है।  इस रश्म को निभाने से लड़ाई कितनी हद तक रूकती हैं ये तो आप सब भली भांति जानते ही है। ज्यादा बताने से क्या फायदा पुछे जाने पर इसके दो तीन उत्तर आये वो हैं कि  इससे अगर घर का मर्द यानी दुल्हा अगर घर की वस्तुए बिखेरता हैं तो औरत यानि दुल्हन को ऐसा होना चाहिए कि वो उसे समेट ले-
यह कि इससे दुल्हन के आज्ञाकारी होने का पता चलता है। 


सोट सोटकी
यह रिवाज बहुत ही रोचक और आश्चर्यजनक रिवाज है। कुछ समय पहले यानि गृहप्रवेश में तो झगड़ा न होने की बात की जाती हैं और उसके कुछ समय के बाद ही यह रश्म अदा की जाती है। इसमें सबसे पहले दुल्हा आपसे में नीम या जाल की सोटकी से एक दुसरे को मारते हैं और फिर दुल्हे के सांग दुल्हे की भाभीयां इसी क्रम में खेलती हैं और दुल्हन के साथ उसके देवर खेलते है। और कही कही तो दुल्हन के ननदोई यानी कि दुल्हे के जीजा जी भी दुल्हन के सांग खेलते है। कही कही तो देखा जाता हैं कि यह खेल भंयकर हो ताजा है। और एक गुस्से का रूप लेकर शरीर को चोट पहुचाने लायक बन जाता है। मजाक मजाक में ये लोग एक दुसरे को चोट पहुचा देते है। और आक्रामक रूप से खेलने लगते है।  

जुआ खेलना 
यह रिवाज भी विचित्र है। इसमें दुल्हा दुल्हन आपस में अपने कांगन डोरे खोलते हैं और दुल्हे की भाभी उसमें दुल्हन की मुंदड़ी (अंगूठी) मिलाकर उन दोनों को एक कोरे नये कुण्ड नुमा मिटटी के पात्र में दुध और पानी डालकर सात बार यह खेल लिखवाती है। इसमें यह देखा जाता है। हैं उस सफेद पानी में सेडाला गया डोरा और वो मुंदड़ी (अंगूठी) पहले कौन निकाल कर लाता हैं दुल्हा या दुल्हन  जो ज्यादा बार लाता हैं वह जितता है। और अंत में दुल्हा दुल्हन की मुटठी को खोलकर उसमें वो अंगूठी पहना देता है। यह भी विवाह का अटपटा लगने वाला रिवाज लगता है। 


Tuesday 14 May 2013

सुहागन की पहचान

माथे पर चमकती गोल बिंदी, कलाइयों में खनकती लाल कांच की चूडियाँ हों या मांग में सजा सिन्दूर हो या गले में पहना गया मंगलसूत्र, पांव में इठलाते बिछुए हों या खनकती पायल, जब इन सभी का ध्यान आता है, तो आंखों के आगे एक सुहगिन स्त्री की छवि उभर आती है। क्या आप जानती हैं कि सुहाग के इन चि±चों की आनी एक अलग ही जबां है। सिन्दूर की लाली 
शादी के बाद मांग भरना लगभग सभी प्रांतों में जरूरी माना जाता है। पंजाब, हरियाण, बिहार, असम, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, उत्तर प्रदेश महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में शादी के बाद मांग भ्रना बहुत अहमियत रखता है। उत्तरी व पूर्वी भारत में चटक लाल रंग का सिन्दूर मांग में भरा जाता है और सिन्दूर के साथ सामंजस्य बैठाने के लिए शक्ति की उपासना की जाती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार में सिन्दूर का रंग चटक केसरिया होता है, इसे कच्चा सिन्दूर कहते हैं। 
मांग टीका या बोरला 
मांग सजाने के लिए जहां सिन्दूर का प्रयोग किया जाता है, वहीं राजस्थानी महिलाओं में बोरला या मांग टीकर पहनना भी सुहाग की निशानी माना जाता है। चांदी या सोने का बना मांग टीका सूरज की हानिकारक किरणों से त्वचा का बचाव करता है और अत्यधिक गरमी में अल्ट्रावॉयलेट किरणों को जज्ब कर लेता है। यह एक प्रकार से प्रेशर पॉइंट पर दबाव भी बनाए रखता है, जिससे मस्तिष्क में शांति बनी रहती है। बिंदी माथे पर भौंहों के बीचोंबीच लगी बिंदी तीसरे नेत्र का काम करती है। ऎसा माना जाता है कि एक बार इसका अनुभव होने पर यह तीसरा नेत्र आध्यात्मिकता की ओर जाने को प्रेरित करता है। 
मंगलसूत्र की सार्थकता
क्या आप जानती हैं कि विवाह सम्बन्धित कई धार्मिक कृत्य उर्वरता से सम्बन्धित हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक व आंध्र प्रदेश में पहने जानेवाले मंगलसूत्र में एक बॉल के दो हिस्से होते हैं, जो उर्वरता व मातृत्व को सार्थक करते हैं। ये दोनों बॉल्स मंगलसूत्र के गोल काले चेरयू के बीड्स में पिरोए जाते हैं। इसे गले में पहनते हैं, जिससे बुरी नजर से भी बचा जा सके। लक्षणों के स्तर पर देखें, तो यह भारतीय पौराणिक अर्द्धनारीश्वर की संकल्पना से भी मेलखाता है, जिसमें आधा पुरूष व आधी स्त्री मिल कर अर्द्धनारीश्वर बनता है और दोनों ही एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। 
नथ 
ज्योतिष के अनुसार लडकी का नाक छिदवाना उसके मामा के लिए शुभ होता है। दक्षिण भारतीय समाज में, जहां कुछ समुदायों में अपने मामा से शादी करने का रिवाज है, इस प्रथा की खासी अहमियत है। भारत के कुछ भागों में कुंआरी लडकी को अंगूडी पहनायीजाती है और शादी के तुरंत बाद उसे नथ पहना दी जाती है। 
कांच की चूडियाँ 
पूरे भारत में कांच की चूडियों की विशेष अहमियत है। धातु के मुकाबले कांच का हीटिंग पॉइट कहीं ज्यादा होता है। मेटल हीट को बनाए रखता है, जबकि कांच में गरमी रूकती नहीं, इसलिए कांच की चूडियाँ चलन मे आयीं।
करधनी 
एक जमाना थ जब करधनी को विवाहित महिलांए बहुत शौक से पहना करती थीं। अगर असली करधनी पर निगाह डालें, तो यह कमरके चारों तरफ बंध कर कमर के निचले हिस्से व पेट की मांसपेशियों को सपोर्ट देती है, क्योंकि महिलाओं को पानी भरते के साथ ही कई भार उठानेवाले काम करने होते है, इसलिए इससे सपोर्ट मिलता है और रीढ की हड्डी सीधी रहती है। 
बिछुए
ऎसा माना जाता है कि हिन्दू महिलाओं द्वारा पैरों की दूसरी उंगली में पहने गए बिछुए एक नस पर दबाव देते हैं, जिससे सेक्स की इच्छा कंट्रोल होती है। 
शादी की अंगूठी 
शादी व सगाई की अंगूठियों को ईसाई दुल्हनेंउल्टे हाथ में रिंग फिंगर में पहनती हैं। माना जाता है कि इस उंगली की किसी एक नस का सीधा सम्बन्ध ह्वदय से होता है और इस उंगली में अंगूठी पहनने से पति हमेशा ह्वदय के करीब रहता है। 
मेंहदी व आलता 
सोलह श्रंगार में मेहदी व आलते का काफी महत्व है, खासतौर पर शादीशुदा महिलाओं के इसे लगाने के पीछे तो और भी रोमांचक तथ्य मौजूद हैं। मेंहदी व आलता दोनों ठंडक तो पहुंचाते ही हैं, साथ में मेंहदी लगाकर कुछ घंटों के लिए ही सही काम से छुटी तो मिलती है।.

सोलह श्रंगार



शृंगार का उपक्रम यदि पवित्रता और दिव्यता के दृष्टिकोण से किया जाए तो यह प्रेम और अंहिसा का सहायक बनकर समाज में सोम्यता और शुचिता का वाहक बनता है। तभी तो भारतीय संस्कृति में सोलह शृंगार को जीवन का अहं और अभिन्न अंग माना गया है। आइये देखते हैं क्या होते हैं सोलह शृंगार-कैसे करते हैं सोलह शृंगार-

शौच- यानि कि शरीर की आन्तरिक एवं बाह्य पूर्ण शुद्धि।

उबटन- यानि हल्दी, चंदन, गुलाब जल, बेसन तथा अन्य सुगंधित पदार्थौ के मिश्रण को शरीर पर मलना। 

स्नान- यानि कि स्वच्छ, शीतल या ऋतु अनुकूल जल से शरीर को स्वच्छता एवं ताजगी प्रदान करना 

केशबंधन- केश यानि बालों को नहाने के पश्चात स्वच्छ कपड़े से पोंछकर,सुखाकर एवं ऋतु अनुकूल तेलादि सुगंधित द्रव्यों से सम्पंन कर बांधना। 

अंजन- यानि कि आंखों के लिये अनुकूल व औषधीय गुणों से सम्पंन चमकीला पदार्थ पलकों पर लगाना। 

अंगराग- यानि ऐक ऐसा सुगंधित पदार्थ जो शरीर के विभिन्न अंगों पर लगाया जाता है। 

महावर-पैर के तलवों पर मेहंदी की तरह लगाया जाने वाला एक सुन्दर व सुगंधित रंग।

दंतरंजन-यानि कि दांतों को किसी अनुकूल पदार्थ से साफ करना एवं उनके चमक पैदा करना। 

ताम्बूल- यानि कि बढिय़ा किस्म का पान कुछ स्वादिष्ट एवं सुगंधित पदार्थ मिलाकर मुख में धारण करना। 

वस्त्र- ऋतु के अनुकूल तथा देश, काल, वातावरण की दृष्टि से उचित सुन्दर एवं सोभायमान वस्त्र पहनना।

ूषण- यानि कि शोभा में चार चांद लगाने वाले स्वर्ण, चांदी, हीरे-जवाहरात एवं मणि-मोतियों से बने सम्पूर्ण गहने पहनना। 

सुगन्ध- वस्त्राभूषणों के पश्चात शरीर पर चुनिंदा सुगंधित द्रव्य लगाना। पुष्पहार-सुगंधित पदार्थ लगाने के पश्चात ऋतु-अनुकूल फूलों की मालाएं धारण करना 

कुंकुम- बालों को संवारने के बाद में मांग को सिंदूर से सजाना। 

भाल तिलक- यानि कि मस्तक पर चेहरे के अनुकूल तिलक या बिन्दी लगाना। 

ठोड़ी की बिन्दी-अन्य समस्त श्रृंगार के पश्चात अन्त में ठोड़ी यानि चिबुक पर सुन्दर आकृति की बिन्दी लगाना।

हिन्दू धर्म में नववधु के लिए कुछ श्रंगार अनिवार्य माना माने गए हैं।है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी इन सभी श्रंगारों को सुहागन के सुहाग का प्रतीक माना गया है। इसीलिए सभी नववधु के लिए ये सोलह श्रंगार बहुत जरूरी और एक तरह का शुभ शकुन माने गए हैं। 

Wednesday 17 April 2013

दुर्गाष्टमी

18 को दुर्गाष्टमी पर देवी पूजा के ये छोटे से मंत्र व उपाय पूरी करेंगे हर मुराद
चैत्र नवरात्रि में महाष्टमी तिथि (18 अप्रैल) शक्ति साधना की बड़ी शुभ घड़ी व रात्रि मानी जाती है। शास्त्रों के मुताबिक शक्ति शिव की वामांगी भी मानी गई हैं। इसलिए नवरात्रि की यह घड़ी वाम मार्गी साधना के लिए भी प्रसिद्ध है। शिव-शक्ति की कृपा जीवन के सारे दु:ख-बंधनों से मुक्त करने वाली मानी गई है। शिव और शक्ति एक-दूसरे के बिना शक्तिहीन भी माने जाते हैं। व्यावहारिक रूप से समझें तो सुख की कामना शक्ति संपन्नता के बिना संभव नहीं होती।

शिव की भांति शक्ति के भी कई रूप ऐसी ही सांसारिक इच्छाओं को पूरा करने वाले माने गए हैं। इन स्वरूपों में भी नवदुर्गा की आठवीं शक्ति महागौरी की पूजा का महत्व है। 18 अप्रैल को अष्टमी तिथि पर मां महागौरी की पूजा के साथ ही गुरुवार का दुर्लभ योग भी है। क्योंकि महागौरी की पूजा खासतौर पर गुरु ग्रह के दोष शांत करने वाली भी मानी गई है। इसलिए इस दिन देवी के साथ गुरु पूजा, गुरु ग्रह के विपरीत योग या दशा से आ रही सुख-भाग्यबाधा दूर करने के साथ, विवाह व संतान से जुड़ी परेशानियां भी दूर कर देंगी। अगली स्लाइड्स पर जानिए देवी व गुरु पूजा के खास मंत्र व पूजा उपाय -
नवरात्रि के आठवें दिन महागौरी की पूजा की जाती है। श्वेतवर्णी तेज स्वरूपा मां का यह करूणामयी रूप है। इनकी उपासना भक्त को शांति, एकाग्रता, संतुलन, संयम रखने की प्रेरणा देकर अक्षय सुख देने वाली मानी गई है। इसी तरह गुरु बृहस्पति देव गुरु होकर ज्ञान व बुद्धि के स्वामी माने गए हैं।
अगली स्लाइड पर जानिए, किन मंत्रों व विधि से दुर्गाष्टमी पर देवी व गुरु पूजा हर भय, बाधा दूर कर बल, आत्मविश्वास देने वाली सिद्ध होगी -
सुबह व रात दोनो वक्त स्नान कर तन के साथ मन पवित्र रख देवालय में साफ वस्त्र पहनकर जाएं।

- दुर्गा या महागौरी की प्रतिमा का जल-दूध से अभिषेक करें।

- महाष्टमी होने से देवी पूजा के लिए लाल चंदन, लाल फूल, लाल चुनरी जरूर चढाएं। इसके अलावा महागौरी की पूजा गंध, अक्षत, मेंहदी, हल्दी, अबीर अर्पित कर यथोपचार विधि से कराएं। इस कार्य को किसी विद्वान ब्राह्मण से भी कराया जाना श्रेष्ठ होता है।

- महादेवी के पूर्ण स्वरूप की वस्त्र, अस्त्र, छत्र, चामर सहित पूजा करें।

- पूजा में देवी दुर्गा को चने-हलवा के साथ खासतौर पर नारियल चढ़ाएं।

- इसी तरह देवगुरु की प्रतिमा या तस्वीर की पूजा भी करें, जिसमें पीली पूजा सामग्री जैसे केसरिया चंदन, पीले अक्षत, पीले वस्त्र, चने की दाल, हल्दी चढ़ाएं। पीले पकवानों का भोग लगाएं।

- बाद महागौरी व दुर्गा का स्मरण करते हुए नीचे लिखे सरल मंत्र बोलें -

- ॐ महागौरी देव्यै नम:

इसी तरह से यह विशेष महागौरी मंत्र स्तुति भी करें -

सर्वसंकट हंत्रीत्वंहिधन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।

ज्ञानदाचतुर्वेदमयी,महागौरीप्रणमाम्यहम्॥

सुख शांति दात्री, धन धान्य प्रदायनीम्।

डमरूवाघप्रिया अघा महागौरीप्रणमाम्यहम्॥

त्रैलोक्यमंगलात्वंहितापत्रयप्रणमाम्यहम्।

वरदाचैतन्यमयीमहागौरीप्रणमाम्यहम्॥

- पूजा में देवी दुर्गा की प्रसन्नता के लिए देवी कवच, दुर्गा सप्तशती का पाठ भी करना शुभ होगा।

- देवी पूजा और आरती, क्षमा-प्रार्थन के बाद यथाशक्ति कन्याओं और ब्राह्मणों को भोजन कराएं, पशुओं को चारा खिलाए, अन्न, वस्त्र का दान करें, गरीबों को आर्थिक मदद करें।

महाष्टमी पर दुर्गा पूजा दु:ख, संकट, भय और चिंता से मुक्त कर परिवार को सुख और समृद्ध कर देगी। इसी तरह गुरु पूजा भाग्य, विवाह, संतान, नौकरी या कारोबार से जुड़ी बाधाओं का अंत कर हर कामनापूर्ति करेगी।