Sunday 1 September 2013

चरित्र नारी का ही क्यों ?


चरित्र जैसे शब्द का सबसे गहरा सम्बन्ध सिर्फ नारी क्यों माना जाता है ? हर आँख उठती है उसी की ओर क्यों ? शक सबसे अधिक उसी के चरित्र पर पर किया जाता है. वह भी उससे कुछ भी पूछे बिना। वैसे तो सदियों से ये परंपरा चली आ रही है कि नारी सीता की तरह अग्निपरीक्षा देने के लिए बाध्य होती है। 
ऐसे कई मामले .......... , जिसमें सिर्फ संदेह की बिला पर औरतों को मार दिया जाता है क्योंकि उनके पति , पिता या भाई को उनके चरित्र पर संदेह हो जाता है या उनका कहीं प्रेम प्रसंग होता है जो उनके घर वालों को पसंद नहीं होता है और फिर दोनों को या फिर किसी एक को मौत घाट उतार दिया जाता है। इसका उन्हें पूरा हक होता है जैसे बेटी , बहन या पत्नी कोई जीते जागते इंसान न होकर उनकी जागीर हों , जिसे सांस लेने से लेकर बोलने , देखने और सोचने तक का अधिकार नहीं है। जरा सा कोई काम उनकी सोच या दायरे से बाहर हुआ नहीं कि--
--- उनके मुंह पर कालिख पुत जाती है
---वे समाज में मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहते हैं।
---उनके खानदान के नाम पर बट्टा लगने लगता है.
---वे अपने पुरुष होने पर लानत मलानत भेजने लगते हैं।
वही लोग जो आज नारिओं के प्रगति की ओर बढ़ते कदम की दुहाई देते हैं और उसके बाद भी उन्हें अपना चरित्र प्रमाण-पत्र साथ लेकर चलना होता है क्योंकि ये एक ऐसा आक्षेप है जिसमें शिक्षा , पद , रुतबा या उपलब्धियां कोई भी ढाल नहीं बनता है। आप आगे बढ़ें लेकिन इस समाज के मन से। आपने आपातकाल में किसी से लिफ्ट ले ली , सहायता ली नहीं की संदेह के घेरे में कैद। इसमें साथ में कौन है , किस उम्र का है ? उससे क्या रिश्ता है ? ये भी कोई मतलब नहीं रखता है।
अगर इसे हम पुरुष के मामले में देखें तो खुले आम एक पुरुष दो महिलाओं को पत्नी के तरह से रख कर रहता है। अभी हाल ही मैं ओम पुरी के मामले में पढ़ा कि उसकी पत्नी ने घरेलु हिंसा का मामला कोर्ट में दाखिल किया। ओम पुरी की दो पत्नियाँ है और वह दोनों के पास रहते है। यहाँ चरित्र का प्रमाण पत्र कैसे दिया जा सकता है ? एक वही क्यों ? कितने लोग एक पत्नी के रहते हुए दूसरी को पत्नी बना कर रह रहे होते हैं, लेकिन उनके चरित्र पर कोई उंगली नहीं उठा सकता क्योंकि वे समाज के सर्वेसर्वा जो है।
एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों और नामी गिरामी लोग तक एक पत्नी के रहते हुए ( बिना तलाक और अपने ही किसी घर में रखते हुए ) दूसरी पत्नी को भी रखते हैं लेकिन उनकी कोई बोल नहीं सकता है बल्कि पत्नी भी अपने भाग्य का दोष मानते हुए अपनी नियति मान कर इसको स्वीकार कर लेती है। अगर कोई औरत ऐसा करे तो क्या ये समाज और पुरुष समाज उसको जीने देगा ? शायद नहीं ( अपवाद इसके भी हो सकते हैं लेकिन ये पुरुषों की तरह से खुले तौर पर स्वीकार होता है। पुरुष ही क्यों इसे कोई स्त्री भी स्वीकार नहीं करती है। क्योंकि ये चरित्र सिर्फ नारी के साथ जुड़ा प्रश्न सदैव रहा है और रहेगा।

No comments:

Post a Comment